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________________ अध्याय नित्य विशेषण दिया गया है वह अयुक्त है ? सो ठीक नहीं । यहाँपर नित्य शब्दका आभीक्षण्य (सदा होनेवाला) यह अर्थ लिया गया है इसलिये 'नित्यप्रहसितः, नित्यजल्पितः' अर्थात् 'यह सदा हसता रहता है, यह सदा बोलता रहता हैं जिसप्रकार यहाँपर नित्य शब्दका आभीक्ष्ण्य अर्थ है उसीप्रकार 'नित्यगतयः' अर्थात् नित्यगमन करते रहते हैं यहांपर भी नित्य शब्दका 'अनुपरतगतयः' अर्थात् विना ठहरे गमन करते रहते हैं यह अभीक्षण्य अर्थ है इसलिए कोई दोष नहीं । तथा ___ अनेकांताच्च ॥३॥ . जिस प्रकार समस्त पदार्थ द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य अविनाशी और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा आनत्य अविनाशी हैं उसीप्रकार सामान्यरूपसे गति नित्य है क्योंकि उसका विच्छेद नहीं होता। और विशेषरूपसे वह अनित्य है क्योंकि क्षण क्षण बदलती रहती है इसलिये अनेकांत सिद्धांत के अनु. सार गतिशब्दका नित्य विशेषण बाधित नहीं। नृलोकग्रहणं विषयार्थ ॥४॥ ढाई द्वीप और दो समुद्रोंके भीतर रहनेवाले सूर्य और चंद्रमा आदि ज्योतिषी देव मेरुकी परिक्रमा देनेवाले और सदा गमनशील हैं किंतु अन्य द्वीप और समुद्रोंके सूर्य चन्द्रमा वैसे नहीं इसप्रकार उनकी गतिके क्षेत्रके निश्चयार्थ सूत्रमें नृलोक शब्दका ग्रहण किया गया है । ढाई द्वीप पर्यत क्षेत्रका नाम नृलोक है। शंका ___ गतिकारणाभावादयुक्तिरिति चेन्न गतिरताभियोग्यदेववहनात् ॥५॥ संसारमें जितने पदार्थ हैं उनकी गति सकारणक देखनेमें आती है विना कारणके किसीकी भी
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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