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________________ PEGEOGSPRESENTER KISABHEEBARMEROJGIRECORDSPENSAR स्त्री पुरुषके संयोगसे जायमान सुखरूप कार्यका नाम मैथुन है । उस मैथुनका सेवन करना | अध्याय 5. प्रवीचार कहा जाता है। प्र और वि उपसर्गपूर्वक चर धातुसे संज्ञा अर्थमें घञ् प्रत्यय करनेपर प्रवीचार | | शब्द सिद्ध हुआ है। प्रविचरणं प्रवीचारः' यह उसकी व्युत्पचि है । मैथुनका-व्यवहार' यह उसका अर्थ है। जिनके काय-शरीरमें प्रवीचार-मैथुनका सेवन हो वे कायप्रवीचार कहे जाते हैं। आग्रहणममिविध्यर्थ ॥२॥ . 'आ ऐशानात्' यहाँपर आङ् अभिविधि अर्थमें है । अर्थात् ऐशान स्वर्गपर्यंत तकके देवोंमें कायसे प्रवीचार है । जिसका स्वामी ईशान इंद्र हो वह ऐशान कहा जाता है। यहाँपर ईशान शब्दसे 'तस्येदं । 'उसका यह' इस अर्थमें अंण् प्रत्ययका विधान है। 'ऐशान' यह दूसरे स्वर्गका नाम है । आङ् उपसर्गका || । अर्थ-इस ऐशान स्वर्गसे लेकर नीचेके देव अर्थात् भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क सौधर्म और ऐशान स्वर्गवासी देव सक्लिष्ट कर्मके उदयसे मनुष्यों के समान स्त्रीके विषयसुखका अनुभव करते हैं, यह है। यहांपर यह शंका नहीं करना चाहिये कि 'आ ऐशानात्' की जगह 'प्रागैशानात' ऐसा उल्लेख क्यों नहीं किया गया ? क्योंकि यदि प्राक् शब्दका उल्लेख होता तो ऐशान स्वर्गके पहिलेके देव कायसे मनुष्योंके। समान मैथुन सेवन करनेवाले हैं यह अर्थ होता। ऐशान स्वर्गके देवोंमें कायप्रवीचार सिद्ध नहीं होता। आङ् ग्रहण करनेसे ऐशान स्वर्गके देवोंमें भी कायप्रवीचार सिद्ध होता है क्योंकि ऐशान स्वर्गको व्यात || कर कायप्रवीचारका विधान है इसलिये सूत्रमें आङ् का ही उल्लेख ठीक है। १ तस्य स्वं । ३ । १०२.| तस्येति तासमर्थात् स्वमिति सम्बन्धिनि द्वितीये यथाविहितं त्यो भवति । इस सूत्रसे ऐशान यहांपर 18/१५ | अण प्रत्यय हुभा है । शब्दार्णवचन्द्रिका | पृष्ठ १०२। atopati
SR No.010551
Book TitleTattvartha raj Varttikalankara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGajadharlal Jain, Makkhanlal Shastri
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages1259
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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