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अन.प
संवाहुभ्यां धमति संपत्तत्रैवाभूमी जनयत् देव एकः॥१॥ अर्थात् उस ईश्वरका चक्षु (कार्यज्ञान) चारो ओर है। उसका मुख (वचन) चारो ओर है । उस ईश्वरका वाहु (व्यापार ) चारो ओर है। उस ईश्वरका पाद (पैर वा व्यापित्व) चारो ओर है तथा वह अपनी दोनों भुजाओंसे वा पाप पुण्यके द्वारा संपत्तत्रैः-परमाणुओंसे आकाश और पृथ्वीकी रचना रे करता है और वह एक अद्वितीय देव है। ऐसा ईश्वरके शरीरका पोषक आगमका वचन है परंतु उसे हूँ किसी बुद्धिमानके द्वारा बनाया गया नहीं माना इसरीतिसे ईश्वरके शरीरमें सन्निवेशविशेषत्वरूप हेतु है तो है परंतु बुद्धिमत्कारणकत्वरूप साध्य नहीं । जहाँपर हेतु तो रहे और साध्य नरहे वहां हेतु व्यभिचार दोषग्रस्त माना जाता है इसलिए यहाँपर सन्निवेशविशेषत्वरूप हेतु व्यभिचारी है । इसरीतिसे उपयुक्त अनुमान: मिथ्या अनुमान होनेसे द्वीप समुद्र आदिक किसी बुद्धिमान कर्ताद्वारा बनाए गये हैं यह नहीं सिद्ध कर सकता।
दूसरे मनुष्य जो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता मानते हैं उनका यह कहना है कि उपर्युक्त व्यभिवार आनेसे ईश्वरका शरीर नहीं सिद्ध हो सकता परंतु वह विलक्षण विलक्षण रचनाके घारक समस्त पदार्थोंकी उत्पत्तिमें निमित्त कारण है । ईश्वरका शरीर नहीं है इस बातमें वे यह आगमप्रमाणं भी
PRORISTANDANSARASIRENDRASTRORISTORI
अपाणिपादो जवनो गृहीता पश्यत्यचक्षुः सशृणोत्यकर्णः।
. सवेत्ति विश्वं नहि तस्य वेचा तमाहुरग्र्यं पुरुषं महांतं ॥१॥ अर्थात् वह अलौकिक पुरुष ईश्वर यद्यपि हाथ पैर नहीं रखता तथापि बहुत शीघ्र गमन करनेवाला