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अध्यान
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यहाँपर जीवतत्त्वके निरूपणका प्रकरण चल रहा था, अप्रकृत द्वीप और समुद्रोंके निरूपणकी 8 यहां क्या आवश्यकता थी ? समाधान-द्वीप और समुद्रोंके निरूपणसे मनुष्योंके आधारका निश्चय होता है इसलिये उनका निरूपण यहां निरर्थक नहीं कहा जासकता। यदि यहांपर यह कहा जाय कि जीवोंके ।
आधारस्वरूप द्वीप और समुद्रोंके उल्लेखमें निमित्त कारण क्या है उसका समाधान यह है किहै जिसप्रकार शरीर आदि पुद्गलोंमें विवेचनाई पुद्गलविपाकी कर्म शरीर नाम आदिक हैं तथा है है। भवविपाकी नारकायु देवायु आदि कर्म हैं और जीव विपाकी साता वेदनीय आदि कर्भ हैं। जो मनुष्य
वा अन्य जीव शरीर आदि धारण करते हैं वहांपर वे कारण होते हैं उसीप्रकार अनेक क्षेत्रोंमें विवेच-1 भनाई अनेक प्रकारके क्षेत्रविपाकी भी कर्म हैं और जो जीव उन क्षेत्रोंमें उत्पन्न होते हैं वे कर्म उनकी |
उत्पत्तिमें कारण पडते हैं इसलिए उन जीव आदिके आधारस्वरूप द्वीप और समुद्रों का उल्लेख निर। र्थक नहीं। हूँ। यदि जीवोंके आधारस्वरूप द्वीप और समुद्रोंका उल्लेख न किया जायगा तो नारकी तियंच और
देवोंके आधारोंका भी प्ररूपण आवश्यक न समझा जायगा इसरूपसे जव जीवोंके आधारोंका ही प्ररू- है पण न होगा तब जीवतत्त्व का भी विशेषरूपसे निरूपण न हो सकेगा । तथा जब जीवके स्वरूपका ही ठीक रूपसे निर्णय न होगा तब तक अखंडरूपसे उसका ज्ञान और श्रद्धान भी नहीं होगा। ज्ञान और श्रद्धानकारणक चारित्र माना है जब ज्ञान और श्रद्धान न होगा तव चारित्रका भी संभव नहीं
१-जिन कमौका फल पुदगल में ही-हो वे पुद्गल विपाकी कर्म कहे जाते हैं इसीता भवविपाकी और जीवविपाकी शन्दोंका भी प्रर्य समझ लेना चाहिये ।
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