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________________ ६४ " एवं उनके पिता, और उनके पिता आदिकी परंपराको अनादि स्वीकार किये विना किसी प्रकार भी छुटका नहीं परंतु इस अनादि परंपराको स्वामीजीसे समाप्ति हो गई ! क्यों कि, स्वामीजी ब्रह्मचारी थे । उन्होंने इस परंपरा को आगे लैजाना स्वीकार नहीं किया ! इसी प्रकार धान्यके साथ छिलकेका संबंध भी अनादिकाल से चला आता है, जब वान्यपरसे छिलका उतर जाता है तब वह संबंध टूट जाता है । ( १ ) कितनेक पदार्थ ऐसे हैं कि, जिनके मादि और अंत दोनोंही नहीं देखे जाते, अतः वे अनादि अनंत माने गए हैं । (२) कितनेक ऐसे भी हैं कि, जिनकी आदि तो नहीं परंतु अंत देखा जाता है; उन्ही को अनादि सांत कहा गया है । ( ३ ) एवं कितनेक ऐसे भी हैं कि, जिनकी आदि तो है मगर अंत नहीं वेही सादि अनंत कहे गए हैं । ( ४ ) इसी प्रकार ऐसे पदार्थों से भी यह संसार भरपूर हैं कि, जिनकी आदि और अंत दोनों ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं, इसीलिए उनको सादिसांत स्वीकार किया गया है. इनका सोदाहरण वर्णन जैन ग्रंथोंमें विशेष रूपसे किया गया है । यह सिद्धांत इतना अवाध्य और उपयोगी है कि, प्रत्येक दर्शनकारने अपने दर्शन में इसको स्थान दिया है । स्वामीजीके मतमें तो अनादिसांत कोई भी पदार्थ नहीं हैं ! क्योंकि, अनादि पदार्थको वोह नित्य ही मानते हैं ! परंतु प्रागभाव के विषयमें उन्होंने अपना क्या सिद्धांत स्थिर किया यह उनके ग्रंथोंसे मालूम नहीं होता ! प्रागभावको माननेवाले. तो उसको अनादि सांतही मानते हैं. । वस्तुतः यथार्थ भी यही है. क्यों कि, घटादि वस्तुके उत्पन्न होनेसे प्रथम जो विद्यमान हो, और उत्पन्न होनेके बाद जिसका नाश हो जाय
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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