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________________ ६३ सज्जनो ! स्वामीजीका जैनदर्शन से अपरिचित होना कोई आश्चर्य जनक नहीं है ! क्योंकि, उन्होंने जैन दर्शनका. - किसी विद्वान् से अध्ययन नहीं किया था, विना पढ़े जैन दर्शनका ज्ञान होना नितांत कठिन है; विनाही समझे किसी --मत प्रतिवाद में प्रवृत्त होना, मनुष्यको निस्संदेह सत्यता और निष्पक्षतासे गिरा देता है ! स्वामीजीने जैन सिद्धांतका पूर्व · पक्ष में उल्लेख करते हुए लिखा है कि, “ जैनी लोग जगत् जीव जीवके कर्म और बंध अनादि मानते हैं " परंतु जीवके कर्म और बंध इस प्रकारकी पद्धतिका उल्लेख जैन ग्रंथों में कहीं नहीं !. जैनोंका तो कथन है कि, " जीवके साथ कर्मों का संयोग प्रवाहसे -अनादि है, परंतु तत्त्व ज्ञानकी प्राप्ति होनेसे उसका नाश हो जाता है. जैसे बीजमें अंकुर देनेकी शक्ति अनादि कालसे विद्यमान है, परंतु यदि उसको मूंज दिया जाय तो वह नष्ट हो जाती है; इसीप्रकार नीवके साथ कर्मों का संबंध अनादि - कालसे चला माता है परंतु तत्वज्ञानकी प्राप्ति होने से वह नष्ट हो जाता है "। इसके संबंधमें स्वामीजीका कथन है कि, अनादि, 'पदार्थका नाश नहीं हो सकता । इसी लिए वे जैनोसे प्रश्व करते हैं कि -" जो अनादिका भी नाश मानोंगे तो तुम्हारे सब अनादि पदार्थोंके नाशका प्रसंग होगा और जब अनादिको नित्य मानोंगे तो कर्म और बंध भी नित्य होगा " इति । स्वामीजीके उक्त लेखसे मालूम होता है कि, आप · अनादिका अर्थ ही नित्य समझ रहे हैं । परंतु विचार किया जाय - तो यह समझ प्रमाण शून्य है । संसारमें कितनेक ऐसे पदार्थ हैं | कि, जिनकी आदि नहीं और अंत देखने में आता है । कल्पना करो कि, स्वामी दयानंदजी के पिता, उनके पिता, उनके पिता,
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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