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________________ ११४: • गोवि जाण अहिओ, तोस धम्मामई जे पकुव्वति । - मुत्तूण चोरसंगं, करंति ते चोरिअं पावा ।। ५० श० ७१ ॥ इसका मुख्य प्रयोजन इतना ही है कि जैसे मूढ जन चोरके संगसे नासिका छेदादि दंडसे भय नहीं करते वैसे जैनमतसे भिन्न चोरं धर्मो में स्थित जन अपने अकल्याण से भय नहीं करते ॥ ७५ ॥ (समीक्षक ) जो जैसा मनुष्य होता है वह प्रायः अपने ही सदृश दूसरों को समझता है क्या यह बात सत्य हो सकती है कि अन्य सब चोर मत और जैनका साहूकार मत है ! जब तक मनुष्यमें अति अज्ञान और कुसंग से भ्रष्ट बुद्धि होती है तब तक दूसरोंके साथ अति ईर्ष्या द्वेषादि दुष्टता नहीं छोड़ता जैसा जैनमतं पराया द्वेषी है वैसा अन्यमत कोई नहीं. [सत्यार्थ प्रकाज पृष्ठ ४३३ ] [ ढ] .. समालोचक- हम प्रथम ऊपर लिखी प्राकृत गाथाका अर्थ पाठकों को बतला देते हैं जिससे स्वामीजीके किये हुए अर्थपर विचार करने के लिए उनको किसी प्रकारकी कठिनता न पड़े ! षष्टि शतक के रचयिता के वक्त कितनेक ऐसे भी मनुष्य थे, जो कि, दंभी और कपटी गुरुओंका संसर्ग तो नहीं करते थे; परंतु उनके रचे हुए मायाजाल रूप धर्मका अनुष्ठान वे अवश्य करते थे ! उनकी इस शोचनीय दशा को देख कर. उक्त ग्रंथकारने उक्त श्लोककी रचना की है. इसका सीधा भावार्थ यह है कि - + " जिन पाखंडी लोगोंके संसर्ग से भी • * सत्यार्थ प्रकाशमें यह श्लोकं बहुत ही अस्त व्यस्त लिखा हुआ है, हमने यहां ठीक ठीक लिखा है. अन्यत्र भी सर्वत्र इसी तरह समझ लेना. • “ येषां संसर्गोपि न क्रियते तेषां पुनरुपदिष्टं ये धर्मः कुर्वन्ति ते पापिनश्चौराणां संगं मुक्त्वा जाने स्वयं चौर्य कुर्वन्ति" इत्यवचूरिकारः॥ +
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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