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________________ तो आज हम कहते हैं। परंतु वह दिन भी बहुत ही नजदीक हैं जिसमें सारे विश्वके विद्वान् एकमत होकर मुक्त कंठसे इस बातकों स्वीकार करने लगेंगे ! उक्तं प्राकृत श्लोकद्वारा ग्रंथकार बड़ी ही योग्य शिक्षा देते हैं. वे कहते हैं कि, *" सांप और कुगुरु ( जैन. शास्त्रसे विरुद्ध. आचरण. करनेवाला जैन वेषधारी दंभी स्वार्थी संसार वंचक साधु ) में बहुत अंतर है ! क्योंकि, सांप तो काटनेसे एक ही दफा मरण देता है, और कुगुरुके संसर्गसे तो अनेकवार जन्म मरणका अनुभव करना पड़ता है ! इसलिए है भद्रः! सर्पको ग्रहण करना तो अच्छा है, परंतु कुगुरुकी सेवा करनी अच्छी नहीं है" इसका तात्पर्य यह है कि, दंभी, स्वार्थी, साधुओंके वेषको कलंकित करनेवाले और अनेक प्रकारके अपकर्म करनेवाले नाम मात्रके साधुओंकी गुरु बुद्धिसे सेवा भक्ति करनेवाले पुरुषको लाभ के सिवा हानिकी ही संभावना है ! इस प्रकारके संसार वंचक गुरुओंसे बुद्धिमान् पुरुपको अलग रहना ही श्रेष्ठ है ! __हमने अपने पाठकोंको उक्त श्लोकका अर्थ और भाव दोनों ही सरल रीतिसे वतला दिए हैं. अब स्वामीजीका उक्त श्लोकके आधारपर जैनोंको कठोर भ्रांत द्वेषी निंदक और भूले हुए कहना कहां तक उचित है ? इसका विचार वे स्वयं कर लेवें. []. स्वामी दयानंद सरस्वती-- . *. " सर्पः एकवारमरणं भ्रष्टगुरु: बहूनि मरणानि ददाति सर्पण गृहीतं वरं न पुनः कुगुरु सेवन' हे सरल!" इत्यवचूंरिकारः।।
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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