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________________ ११०· · चुप रहना ही उनकी समीक्षा की समालोचना है ! परंतु भई समाजको उनकी इस शिष्ट पद्धतिका परिचय हम अवश्य करबाते रहेंगे. पाठकोंको इस बातका ख्याल रहे कि, उक्त प्राकृत श्लोकका अर्थ करते समय स्वामीजीने अपने पूर्व स्वभावका परिवर्तन नहीं किया ! यहां पर भी उन्होंने अपनी आदतके अनुसार अर्थमें कुछ फेरफार किया है | प्रकरण प्राप्त उक्त श्लोकका स्पष्ट भावार्थ यह है कि उक्त ग्रंथके रचयिता अपने समयमें होनेवाले जैन वेषधारी दंभी साधुओं और उनके वैसेही भक्तोंको जैनशास्त्रोंसे - विरुद्ध आचरण करते देख अंतःकरणमें खेद प्रकट करते हुए कहते हैं कि “बडे दुःख की बात है ! किसके आगे पुकार करें ? कोई प्रभु नहीं है ! कहांतो जिनेंद्र भगवानका कथन और उसके अनुसार शुद्ध चारित्रके पालनेवाले सुगुरु, अर्थात् गुरु कहाने योग्य जैन साधु और उनकी भक्ति करनेवाले जैन गृहस्थ ! और कहां ये जैन वेषधारी शिथिलाचारी जैन शास्त्रोंकी आज्ञा से विरुद्ध आचरण करनेवाले कुगुरु और उनकी सेवा करनेवाले ये नाम मात्रके श्रावक - ( जैन गृहस्थ ! ) इसलिए यह बड़ा अ-कार्य है ! !” * * CL हा हा खेदे गुरुचाकार्ये स्वामी कोपि नास्ति यः शिक्षां दत्ते कस्याग्रे पूत्क्रियते ? केदं जिनवचनं निष्कलंकं ! क्व सुविहिता गुरवः ! क्व चोत्तमाः श्रावका धर्मरहस्यार्थिनः ! इत्यकार्यमित्यक चूरिकार: ॥”
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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