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________________ १०९ जैसे ही महापुरुष मनुष्यता और संभ्यताका खून करने लग जावें यह कितने दुःखकी बात है ? [3] स्वा० द० स० - *-हाहा! गुरुअ अकजं, सामी नहु अत्थिा कस्स पुकरिमों। कंह जिणवयणं कह सुगुरु, सवियों कहइ अकज। पं..३६॥ सर्वज्ञ भापित जिन वचन जैनके सुगुरु और जैन धर्म कहां और उनसे विरुद्ध कुंगुरुं अन्य मार्गिके उपदेश कहां अर्थात् हमारे सुगुरु सुदेव सुधर्म अन्यके कुदेव कुगुरु कुधर्म हैं ॥ ३५ ॥ (समीक्षक ) यह वात बेर वेचने हारी कुंजडीके समान है जैसे वह अपने खट्टे वेरोंको मीठा और दूसरीके मीठोंको खट्टा और निकम्मे बतलाती है इसी प्रकारकी जैनियोंकी बाते हैं [ सत्यार्थ प्रकाश पृष्ठ ४३१ ] [ ] . समालोचक-सज्जनो ! स्वामीजीकी समीक्षापर अब हम कुछ विशेष विचार नहीं करेंगे ! स्वामीजीकी समीक्षापर समा' लोचना करनेका विशेष अधिकार वही मनुष्य रख सकता है . जो कि, अन्य धर्मों और उनके आचार्यों को स्वामीजीकी तरह बड़े खुल्ले शब्दोंमें ऊंचा नीचा कहनेके लिए समर्थ हो! इसलिए-" जवावे जाहलां वाशुद खामोशी की मिसालसें * सत्यार्थ प्रकाशमें स्वामीजी महाराजने जितनी षष्टि शतककी गाथाएँ उद्धृत की हैं प्रायः सबकी सब अशुद्ध और अस्तव्यस्त लीखी हैं जिनसे स्वामीजी महाराजका प्राकृत ज्ञान खूब ही झलक रहा है ! पाठकवृंद हमारी, लिखी हुई और सत्यार्थ प्रकाशमें लिखी हुई गार्थी ओंका मिलान करके देख लेवें: . क्योंकि .पुनः पुनः लिखनेके बदले प्रथमसे ही गाथाको शुद्ध करके यहां हमने उद्धृत किया है। : . . ...
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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