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________________ ९५ क्योंकि ऐसी महत्वपूर्ण समीक्षापर विचार करने की हममें यो-ग्यता नहीं है । सच पूछो तो स्वामीजीकी समीक्षा और पंजाबी की "वण विच फुलियां किकरां, लग्गे सेऊ वेर । झड़ झड़ पैण परातडे, देख दालदा स्वाद !" यह कहावत, दोनो सगी बहने हैं ! | सभ्यवृंदो ! "सब प्रकारके निंदनीय अन्यमत संबंधका त्याग" इस कलित श्लोकार्थ परभी स्वामीजी यदि कुछ रोशनी डाल जाते तो भी वे किसी अंशमें स्तुत्य समझे जाने लायक थे ! अस्तु अब हम उक्त श्लोक और उसका ठीक ठीक अर्थ करके पाठकों के उन संदेहों को दूर करते हैं, जिनका स्वामीजी के लेखको देखकर होना एक स्वाभाविक है !!. "सर्वसावद्ययोगानां त्यागश्चारित्रमुच्यते । कीर्तितं तदहिंसादि - व्रतभेदेन पञ्चधा ॥ अर्थ - सर्व प्रकार के पापयुक्त व्यापारके परित्यागका नाम चारित्र है, वह (चारित्रं) अहिंसादि (अहिंसा १ सत्य २ अस्तेय ३ ब्रह्मचर्य ४ अपरिग्रह ५ ) व्रत भेदसे पांच प्रकारका हैं. इसका स्फुट भाव यह है कि, सब तरह के बुरे कामोंको छोड़ने का नाम चारित्र है. वह, किसी जिवको मारना नहीं ?, सत्य बोलना २, चोरी नहीं करना ३, ब्रह्मचर्य रखना ४, किसी वस्तु ममत्व नहीं रखना ९, इन भेदोंसे पांच तरहका है । जिनको पातंजल दर्शन और मनुस्मृति में यमके नामसे पुकारा है, उन्ही की जैन शास्त्रों में व्रत संज्ञा है. इनका निरंतर पालनकरना स्वामीजी भी बतलाते हैं ! देखो [ सत्या० पृ० ४७ ] . सज्जनो ! उक्त श्लोक में क्या ही सुंदर एवं शांतिमय । उपदेशका सरल और स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया है ! एकसाधारण पढा लिखा हुआ भी बड़े अनायास से समझ सकता.
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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