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________________ और अहिंसादि भेदसे पांच प्रकारका व्रत है" इस अर्थको देखकर हम विना संकोच यह कहनेका साहस कर सकते हैं कि, स्वामीजी जैन ग्रंथोंको पढ़े सुने तो कुछ भी नहीं थे! परंतु चाहते थे कि, मैं भी उनमें पग अडाऊं ! परंतु विना किसी योग्य जैन विद्वान्की सेवा किये जैनग्रंथोंका मर्म कहां समझमें आ सकता है ? कदापि हम स्वामनिकि ही उक्त अर्थकी पूंछ पकड़कर चलें ! तो भी किसी परिणामपर पहुंच सकें ऐसी हमे आशा नहीं ! क्योंकि आगे चलकर जो उन्होंने उक्त श्लोक के संबं'धर्म समीक्षा की है वह सचमुच ही स्वामीजी के पूर्व कथन के विरोधमें एक निर्दय राक्षस सेनां जैसा काम कर रही है ! स्वामीजी, जैनोंकी तर्फसे पूर्वपक्षमें "सब प्रकारके निंदनीय अन्यमत संबंधका त्याग चारित कहाता है" लिखते हुए इसकी समीक्षा में फरमाते हैं कि "क्या यह छोटी निंदा है कि जिनके ग्रंथ देखनेसे ही " पूर्ण विद्या और धार्मिकता पाइजाती है उनको बुरा कहना! " और अपने महा असंभव जैसाकि पूर्व लिख आये हैं वैसी " बातों के कहनेवाले तीर्थकरोंकी स्तुति करना ! केवल हठकी " बातें हैं भला जो जैनी कुछ चारित्र न कर सके, न पढ़ सके, " न दान देनेका सामर्थ्य हो तो भी जैनमत सच्चा है क्या " इतना कहने हीसे वह उत्तम हो जाये और अन्यमतवाले श्रेष्ट " भी अश्रेष्ट हो जायें ? ऐसे कथन करनेवाले मनुष्यों को प्रांत " और बालबुद्धि न कहाजाय तो क्या कहें ? इसमें यही विदित " होता है कि इनके आचार्य स्वार्थी थे पूर्ण विद्वान नहीं थे।" - स्वामीजीकी समीक्षा उक्त श्लोकार्थ से कितना संबंध रखती है. इसका इनसाफ हम पाठकोंपर ही छोडते हैं !
SR No.010550
Book TitleSwami Dayanand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Shastri
PublisherHansraj Shastri
Publication Year1915
Total Pages159
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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