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________________ १८० ] सुबोध जैन पाठमाला-भाग २ पावकम्मे : प्रत्याख्यात पापकर्म वाला बना हूँ अरिणयारणो : मैं निदान (मोक्ष के अतिरिक्त अन्य फल की कामना से) रहित हूँ दिदि संपन्नो : सम्यग्दृष्टिसंपन्न हूँ मायामोसं विवजियो : कपट भूठ से रहित हूँ ऐसी दशा मे किये हुए किसी पाप को छुपाना, उसका प्रतिक्रमण न करना या विस्मृत पाप के प्रति अनादर करना मेरे लिए कैसे उचित है ? अतः मैं सभी पापो की आलोचना करके उनका प्रतिक्रमण करता हूँ। जैन धर्म पालको को नमस्कार अडाइज्जेसु दीव : अढाई द्वीप समुद्देसु : (और दो) समुद्रो की पण्णरससु : पन्द्रह कम्मभूमिसु • कर्मभूमियो मे (मुझ से छोटे या वडे) जावंति केइ साहू : जितने भी कोई साधू है रयहरण-गुच्छग- : (जो वेश से) रजोहरण, गोच्छा पूजणी (मुह पोत्तिय) : ('मुखवस्त्रिका' गुच्छग का पाठान्तर) पडिग्गह-धारा : पात्र आदि के धारी हैं (तथा गुरण से या कारणवश वेश रहित केवल) पंच-महत्वय-धरा : पाँच महाव्रत धारी हैं अट्ठारस-सहस्स : अट्ठारह सहस्र (हजार) सीलंग-रह-धारा : शीलाग रूप रथ के धारी हैं प्रवस्त्रयायार : अक्षत (निरतिचार) आचार वाले
SR No.010547
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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