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________________ काव्य-विभाग १. श्री पंचपरमेष्ठि-स्तवन [ तर्ज : काहे मचावे शोर, पपोहा ! ] एक सौ आठ चार, परमेष्ठि ' करते हैं नमस्कार ||२|| अरिहन्त कर्म शत्रु विजेता, त्रिजग- पूजित तीर्थप्रणेता, न राग-द्वेष विकार ।। परमेष्ठि । १ । करते हैं सिद्धों के सब कर्म खपे हैं, सारे कारज सिद्ध हुए है । ज्योति मे ज्योति पार || परमेष्ठि । २१ करते है आचार्य आचार पलाते, संघ शिरोमणि सघ दिपाते । सकल संघ रखवार 11 परमे ष्ठ | ३१ करते हैं उपाध्याय अध्ययन कराते, भ्रांति मिटाते ज्ञान बढाते । .. द्वादशांग आधार ॥ परमेष्ठि 1 ४ 1 करते हैं साधु आतमा अपनी साधे, महाव्रत समिति गुप्ति श्राराधे । त्याग दिया ससार ॥ परमेष्ठि । ५ । करते हैं पाँच नमन सव पाप-प्रणाशक, उत्तम मंगल- विघ्न विनाशक । भव भव शांति अपार || परमेष्ठि | ६ | करते है .. हम मे भी तुमसे गुरण जागे, हम भी परमेष्ठि पद पावे 1 "पारस" हों भव पार || परमेष्ठि | ७ | करते हैं 001 - नमस्कार महामन्त्र के भावों पर ३ . ·
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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