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________________ कथा-विभाग-२. गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [ १९५ जाता हूँ। जब तक सूर्य का उदय नहीं होता, तब तक ही अन्धकार रह सकता है, सूर्योदय के बाद नही। चर्चा करके उसे हराते ही उसको यह सारी माया सिमट जायगी और उसकी सर्वज्ञता का ढोग उड जायगा।' प्रभु के चरणों में श्री इन्द्रभूति अहकार और ईर्ष्या के साथ भगवान् के समवसरण की ओर चले। पर दूर से समवसरण की सोभा देखते ही वे चकित हो गये । -'ऐसी शोभा तो मैने कही नही देखो' समवसरण के निकट पहुँच कर भगवान् की मुख-मुद्रा देखते ही तो उनका अहकार भी गल गया, ईर्ष्या की भावना भी मिट गई। 'अहा ! यह कसा दिव्य रूप । इस सूर्य के सामने तो मैं जुगनू-सा भी नही हूँ। और इनकी वाणी मे कितना प्रोज। कितना प्रभाव ।। कौन ऐसा है, जो इनकी ऐसी मधुर वाणी सुनकर हरिण-सा बन कर इनके पास खिंचा चला न आवे " __ भगवान् के पास पहुंचने पर भगवान् ने उन्हे "हे | इन्द्रभूति गौतम ।' कहकर बुलाया। गौतम ने यह सबोधन सुनकर सोचा-'लोग इन्हे सर्वज्ञ कहते थे~वह बात सच दिखती है। भेरा कभी इनसे परिचय नही, कभी इन्हे देखा भी नही, तो इन्हे मेरा नाम और गौत्र कसे ज्ञात हुआ ? अथवा मैं तो जगत्प्रसिद्ध हूँ। इस विश्व मे मुझे कौन नहीं जानता? इसलिए मात्र मेरा नाम और गोत्र बता देने से ही इन्हे सर्वज्ञ मान लेना भूल है। यदि ये मेरे मन मे रहा संशय बता दे और दूर कर दें, तो, मैं इन्हे सर्वज्ञ समझू ।'
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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