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________________ १७ जन सुवोध पाठमाला--भाग १ लगता 'कि यह नगा हमसे कानी ऑख करता हैं (ऑखें लडाता है), यह हाथ यादि जोड कर हमसे काम-भोग की प्रार्थना करता है, यह पिशाच की भाँति उन्मत्त है। यह हमें कष्ट देता है, यह हमारे समक्ष विकृत रूप मे खडा है।' इस प्रकार दिखाई देने पर कुछ तला स्त्रियाँ स्वय भगवान् को पीटती, कुछ, स्त्रियाँ अपने पति आदि को कह कर पिटवाती। सगम के ऐसे दुष्कृत्य देखकर भगवान् उपसर्ग से तो विचलित नहीं हुए पर । 'इससे जैन धर्म का महान् अपमान होता है, उसके प्रति लोग अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखते है'-यह सोच कर उन्होंने गाँव आदि मे भिक्षार्थ जाना ही बन्द कर दिया। फिर भी उस दुरात्मा ने भगवान् को उपसर्ग देना नहीं छोडा। भगवान् गॉव के बाहर कायोत्सर्ग करके खड़े रहते। पर वह उनका वालक गिष्य वन कर गाँव मे जाता। वहाँ कही सेव लगाता। कभी सेव लगाने ग्रादि का स्थल ढूँढता। तव लोग उसे पकड कर मार-पीट करते। वह कहता : 'मैं स्वय कुछ, नहीं करता, मुझे तो गाँव के बाहर खड़े मेरे गुरु जो कहते है, वही करता हूँ।' तक लोग गाँव के वाहर पाकर भगवान् को मार-पीट करते। परन्तु भगवान् तव भी उसे सहते रहे। भगवान् को सहिष्णुता व अनुकम्पा अपराधी न होते हुए भी दूसरों के समक्ष अपराधी बताना, वह भा असदाचारी के रूप मे-उसे सहन करना कितना कठिन होता है ? पर भगवान् ने उसे भी महा। अपराध में प्रेरक न होते हुए भी भगवान् को प्ररक वनाग, तव भी भगवान् गात रहे। धन्य है, ले परीपह सहिष्णु प्रभु को सगम ने भगवान् को इस प्रकार छह मान तक कष्ट दिये। छह मास
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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