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________________ कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर १७५ गोशालक के वाद और पन्थ उसने इस घटना से १. नियतिवाद (जो होना है, वह होता ही है और अपने आप ही होता है। वह न तो पुरुषार्थ से होता है, न वह पुरुषार्थ से रुकता है।) तथा २. परिवर्तपरिहारवाद (विना मरे जीव का अन्य शरीर में परिवर्तित होना और पूर्व शरीर का परित्याग करना)—ये दो सिद्धान्त बनाये। इसके पश्चात् उसने भगवान् से जानी विधि करके छह महीने मे तेजोलेश्या प्राप्त की तथा उसे एक दासी पर प्रयोग करके उसके मर जाने पर उसकी प्राप्ति पर विश्वास किया। उसके पश्चात् उसे भगवान् पाश्र्वनाथ के छह पाश्वस्थ (ज्ञानक्रिया को एक ओर रख कर चलने वाले) मिले। उनसे उसने भूत मे हुए व भविष्य मे होने वाले १. लाभ, २ अलाभ, ३ सुख, ४ दुख, ५ जीवन और ६. मरण इन छह बातो को जान लेने की विद्या सीख ली। इस प्रकार वह तेजोलेश्या और निमित्त-विद्या को जान कर अपने आपको झूठ-मूठ सर्वज्ञ व तीर्थकर कह कर विचरने लगा। अनार्य देश के उपसर्ग छमस्यकाल के पाँचवे वर्ष मे और नववे वर्ष मे इस प्रकार दो वार भगवान् अनार्य देश में अपने कठिन एव बहन कर्मों की निर्जरा के लिए पधारे थे। वहाँ के लोग स्वभाव से कर थे। वे भगवान् को गाँव मे वुसने नही देते थे, रोटी-पानी नहीं देते थे, उन्हे मुण्डा मुण्डा आदि अपशब्द कहते थे, उनके पीछे कुत्ते भी छोड देते थे। कहो ध्यान लगाये देखते, तो ठोकर
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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