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________________ १२४ ] जैन सुबोध पाठमाला भाग १ ३. भिक्षाचरी भिक्षा के दोपो को वर्जते हुए (दोष न लगाते हुए) भिक्षा लाना। मै भोजन-पान की १. वह वस्तु २. उस क्षेत्र मे, ३ उस काल मे, ४ उस प्रकार से मिलने पर ही लंगा, अन्यथा नहीं' ---इत्यादि अभिग्रह (मन मे निश्चय) करना भी भिक्षाचरी तप मे है।। ४. रस परित्याग रस अर्थात् विकृति (विगय) आदि का त्याग करना। विकृति पाँच है। १. दूध २. दही ३ घी ४. तेल ५. गुड-शकर । निबिगई, पायबिल आदि भी रस परित्याग मे हैं। ५. काय क्लेश : काया को कष्ट देना । जसे लोच करना, कठोर आसन लगाना आदि । ६. प्रतिसंलीनता : वश मे रखना। जैसे १. इन्द्रिय, २ कपाय और ३. योग को वश मे रखना, ४ एकान्त मे रहना। ७. प्रायश्चित्त : लगे हुए अतिचार या पाप (दोप) को उतारना। जैसे १. अालोचना (पाप को प्रकट) करना, २. प्रतिक्रमण करना, ३. उपवास आदि दण्ड लेना। ८. विनय : जिससे कर्म दूर हो-ऐसी नम्रता। जैसे खडे होना, हाथ जोड़ना, वन्दना करना आदि । ६. वैयावृत्य : सेवा करना। जैसे पाहार-पानी लाकर देना, बोझा उठा लेना, काया कोमल बनाना (पगचपी करना) आदि। १०. स्वाध्याय : आत्मा की उन्नति करने वाला अच्छा अध्ययन। जैसे १ शास्त्र ग्रादि पढ़ना, कठस्थ करना, २ उनसे सम्बन्ध रखने वाले प्रश्न पूछना, ३. उन्हे दुहराना, ४ उन पर विचार करना, ५ उन्हे दूसरो को सिखाना, समझाना।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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