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________________ १०० ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ पैरो के अगले भाग मे चार अगुल का तथा पिछले भाग मे कुछ कम चार अगुल का अन्तर डालकर खडे रहना चाहिए। इस समय मस्तक को कुछ झुकाकर रखना चाहिए तथा दृष्टि चल न रखते हुए स्थिर रखनी चाहिए। प्र० : खडे रहने की ऐसी मुद्रा को क्या कहते हैं और क्यों कहते है ? उ० : ऐसी मुद्रा को 'जिनमुद्रा' कहते हैं। १. जिनेश्वर (अरिहत) भगवान् कायोत्सर्ग आदि इसी मुद्रा से करते है, इसलिए इसे 'जिनमुद्रा' कहते हैं। २ इस मुद्रा से आलस्य पर विजय मिलती है। ३ तन-मन मे दृढता उत्पन्न होकर परिषहो (कष्टो) को सहने की शक्ति पाती है। इसलिए भी इसे 'जिनमुद्रा' कहते है। प्र. : हाथ जोडने की विधि क्या है ? उ० : दोनो हाथो की अगुलियाँ आपस मे फंसाकर कमल की कली के आकार मे हाय जोडने चाहिएँ और हाथो की दोनो कोहनियो को नाभि के निकट टिकाना चाहिए। प्र० : हाथ जोडने की इस मुद्रा को क्या कहते है और क्यों कहते है ? उ० : इस मुद्रा को 'योगमुद्रा' कहते है । इससे देव, गुरु, धर्म, शास्त्र, आत्मा जिसका भी ध्यान करना हो, उसमें तन-मन अधिक अच्छे जुड़ जाते हैं। इसलिए इसे 'योगमुद्रा' कहते है। प्र० : क्या सामायिक लेने की और पारने की सारी विधि जिनमुद्रा से खडे रहकर और योगमुद्रा से हाथ जोड कर करनी चाहिए अथवा पर्यंक आदि आसन से बैठ कर और योगमुद्रा से हाथ जोड़ कर करनी चाहिए ?
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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