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________________ ११२ यह अर्थ प्रन्थ के सङ्गत नहीं है किन्तु माहार समुद्वातका सम्बन्ध जोड़कर भानुमानिक (अंदाजियां) है। वास्तविक अर्थ ऊपर की धवला का यही टोक है कि उन्य मानुषियों में श्रमं यत सम्यकहटियों का उपपाद नहीं होता है। और भावमान पियों में ते. समुद्घात तथा माहारक समुद्रात प्रमत्त गुणस्थान में नही होता है। ऊपर का वाक्य द्रव्यत्रियों के लिय और नीचे का वार भावरियों के लिये है। ऐसा अर्थ हो ठीक है इसके दो हेतु है एक तो यह कि वाक्य में उपदो पत्थि यह पद है, इसका अश जन्म है। जन्म द्रव्य वेद मही सम्भव है, भाववेद में सवा असम्भव है। यह वात सर्वथा हेतु संगत और न्य सङ्गत ना है कि मानुपी में ता उपपाद का निषेध किया जाय और बिना किसी पद और वाक्य के उसका अर्थ यमनुष्य में लिया जाय। मतः उपर धवला का धवल वाक्य व्यही के लिये ही है । इसका दूसरा हेतु यह है कि उस ऊपर के वाक्य के बाद पमत्ते तेजाहार समुग्यादा स्थि' इस दूसरे वाक्य में पमत्ते' यह पद धवलाकार ने दिया है इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह कथन भाववेद की अपेक्षा से है और पहलो पंक्ति का कथन व्यवेद को अपेक्षा से है। यदि दोनों वाक्यों का अर्थ भावली ही किया जाता तो फिर धवलाकार पमत्ते पर क्यों देते १ भालापाधिकार में सर्वत्र यथायोग्य एवं यथा सम्भव सम्बन्ध समन्वय करने के लिये सर्वत्र ब्यवेद और भाववेद को अपेक्षा से वर्णन किया गया है। यदि सोनी जी दोनों वाक्यों का भावली ही ठीक समझते हैं तो
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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