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________________ ७१ पणे उपचारेण तद्व्य देशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्वाऽविरोधात । अर्थ - शङ्का - बंद विशेषण सहित गति में तो चौदह गुणस्थान नहीं हो सकते हैं ? उत्तर - यः शङ्का भी ठीक नहीं, विशेषण के न होने पर भी उपचार से उसी व्यवहार को धारणा करने वाली मनुष्य गति में चीदह गुणस्थानों की सत्ता का कोई विरोध नहीं है । विशेष - शङ्काकार का यह कहना है कि जब भावत्रीवेद नौवें गुगास्थान में ही नष्ट हो जाता है तब भावबंद की अपेक्षा से भी चौदह गुणस्थान कैसे बनेंगे ? उत्तर में आचार्य कहते हैं कि यद्यपि नष्ट हो गया है फिर भी वेद के साथ रहने वाला मनुष्यगति तो है ही है। इसलिये जो मनुष्यगति नौब गुणस्थान तक बंद सठिन थी वही मनुष्यगति वेद नष्ट होने पर भी अब भी है, इसलिये (ग्यारहवें बारहवें और तेरहवें गुणस्थानों में कषाय नष्ट होने पर भी योग के सद्भाव में उपचार से कही गई लेश्या के समान) बंद रहित मनुष्यगति में भी चोदह गुणस्थान कहे गये 항 । व भूतपूर्व नय की अपेक्षा स उपचार से भाववेद की अपेक्षा से कह गये हैं। मनुष्यापर्याप्तिवपर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत: सुगमस्थात न तत्र वक्तव्यमस्ति । अर्थ - अपर्याप्त मनुष्यों में अपर्याप्ति के प्रतिपक्ष का अभाव होने से सुगम है, इस लिये वहां पर कुछ वक्तव्य नहीं है ।
SR No.010545
Book TitleSiddhanta Sutra Samanvaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMakkhanlal Shastri, Ramprasad Shastri
PublisherVanshilal Gangaram
Publication Year
Total Pages217
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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