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________________ श्रमण महावीर एड़ियां सटी हुई हैं। पंजों के बीच में चार अंगुल का अन्तर है। अनिमेप चक्षु नासान पर टिके हुए हैं। शरीर शिथिल, वाणी मौन, मंद श्वास और निर्विचार मन । भगवान् ध्यानकोष्ठ में पूर्णतः प्रवेश पा चुके हैं। बाह्य-जगत् और इन्द्रियसंवेदनाओं से उनका संवन्ध विच्छिन्न हो चुका है । अब उनका विहार अन्तर्-जगत् में हो रहा है। वह जगत् ईर्ष्या, विषाद, शोक, भय आदि मानसिक दुःखों की संवाधा और सर्दी-गर्मी, विष-शस्त्र आदि शारीरिक दुःखों की संवेदना से अतीत है। चंडकौशिक जंगल में घूमकर देवालय में आया। मंडप में प्रवेश करते ही उसने भगवान् को देखा । मंडप वर्षों से निर्जन हो चुका था। उसके परिपार्श्व में भी पैर रखने में हर आदमी सकुचाता था। फिर उसके भीतर आने और खड़े रहने का प्रश्न ही क्या ? चंडकौशिक ने आज पहली बार अपने क्रीड़ास्थल में किसी मनुष्य को देखा। वह क्षणभर स्तब्ध रह गया। दूसरे ही क्षण उसका फन उठ गया । दृष्टि विष से व्याप्त हो गई। भयंकर फुफकार के साथ उसने महावीर को देखा। तीसरे क्षण उसने खड़े व्यक्ति के गिर जाने की कल्पना के साथ उस ओर देखा । वह देखता ही रह गया कि वह व्यक्ति अभी भी खड़ा है और वैसे ही खड़ा है जैसे पहले खड़ा था। उसकी विफलता ने उसमें दुगुना क्रोध भर दिया। वह कुछ पीछे हटा। फिर वेग के साथ आगे आया और विषसंकुल दृष्टि से भगवान् को देखा। भगवान् पर उसका कोई असर नहीं हुआ। उसने तीसरी वार सूर्य के सामने देख दृष्टि को विप से भरा और वह भगवान् पर डाली। परिणाम कुछ भी नहीं हुआ। भगवान् अब भी पर्वत की भांति अप्रकंप भाव से खड़े हैं। ___चंडकौशिक का क्रोध सीमा पार कर गया । वह भयंकर फुफकार के साथ आगे सरका । आरोप से उछलता हुआ फन, कोप से उफनता हुआ गरीर, विप उगलती हुई आंखें, असि-फलक की भांति चमचमाती जीभ-इन सबकी ऐसी समन्विति हुई कि रोद्र रस साकार हो गया। चंडकौशिक भगवान् के पैरों के पास पहुंच गया। उसने सारी शक्ति लगाकर भगवान के बाएं पैर के अंगूठे को इसा। विष ध्यान की शक्ति से अभिभूत हो गया। विपधर देखता ही रह गया। उसने दूसरी बार पैर को और तीगरी बार परों में लिपटकर गले को इमा। उसके सब प्रयत्न विफल हो गए। क्रोध के आवेश में वह खिन्न हो गया । बार-बार के वेग से वह थककर चूर हो गया। वह कुछ दूर जाकर भगवान् के सामने बैठ गया। भगवान् की ध्यान-प्रतिमा सम्पन्न हुई। उन्होंने देना चंदकौगिक अपने विशालकाय को समेटे हुए सामने बैठा है। भगवान् ने प्रशान्त और मंत्री में मओतप्रोत दृष्टि टम पर डाली। उमकी दृष्टि का विष धुल गया। उसके रोम-गेम में शान्ति और मुधा व्याप्त हो गई। यह है अहिमा की प्रतिष्ठा और मंत्री की विजय ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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