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________________ असंग्रह का वातायन : अभय का उच्छ्वास साधना के प्रथम वर्ष में वे फोल्लाक सन्निवेश से मोराक सन्निवेश पहुंचे। उसके बहिर्भाग में घुमक्कट तापतों का आश्रम था। वे वहां गए । आश्रम का कुलपति भगवान के पिता सिद्धार्थ का मिन्न था। वह भगवान को पहचानता था। एक तापस ने भगवान् को आश्रम में आते हुए देखा। उसने कुलपति को सूचना दी। वह अपने साधना कुटीर से बाहर नाया। उसने महावीर को पहचान लिया। वह आतिथ्य के लिए सामने गया। दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया। कुलपति के निवेदन पर महावीर एक दिन वहीं रहे। दूसरे दिन वे आगे के लिए प्रस्थान करने लगे । कुलपति ने कहा-'मुनिप्रवर! यह आश्रम आपका ही है । आप इसमें निःसंकोच भाव से रहें। अभी आप प्रस्थान के लिए प्रस्तुत हैं । में नापकी इच्छा में विघ्न उपस्थित नहीं करूंगा। मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप इस वर्ष का वर्षावास यहीं विताएं।' ____ महावीर वहां से चले। कई महीनों तक आसपास के प्रदेश में घूमे। आश्रम से बंधकर गए धे, अतः वर्षावास के प्रारम्भ में पुनः वहीं लौट आए। इसे आश्चर्य ही मानना होगा कि अपनी धुन में अलख जगाने वाला एक स्वतंत्रता-प्रेमी साधक फुलपति के बंधन में बंध गया। युलपति ने महावीर को एक घोंपड़ी दे दी। वे वहां रहने लगे। उनके सामने एक ही कार्य था और वह पा ध्यान-भीतर की गहराइयों में गोते लगाना और संस्थारों की परतों के नीचे दबे हुए अस्तित्व का साक्षात्कार करना। वे अपनी शोपड़ी की और भी ध्यान नहीं देते तब आवासीय सोंपड़ी की ओर ध्यान देने की उनसे आशा ही कसे की जा सकती थी ? महावीर की यह उदामीनता झोपड़ी के अधिकारी तापन को चलने लगी। उसने महावीर से अनुरोध किया, 'आप सोपड़ी की सार-संभाल किया करें।' समय का भरण नागे बढ़ा । बादल आकाम में पिर गए। रिमझिम-रिमसिम व गिरने लगी। बीम ने अपना मुंह वर्षा के अवगुंठन में हक लिया। उसके द्वारा पुरात ताप गीत में बदल गया । भूमि के कण-कण में रोमांच हो वाया। उसका एरित परिधान वरवर मांगों को अपनी ओर खीचने लगा। गाएं गरर में चरने को आने लगी। पास अभी बढ़ी नही थी। भूमि अभी अंकुरित ही थी । क्षुधातुर गाएं पास मी टोह में लाभम की वोपड़ी तक पहुंच तो दी। मन नभी तापम अपनी-अपनी झोपड़ों की रक्षा करते । लाएंजन जोगली पर लकी. जिममापीर हरे हुए थे। वे उनके छप्पर की पासमा मानतिने निवेदन दिमा--मेरी सोपटीने उपरथी पामनाएं पानाती। मेरेनरोध करने पर भी महावीर उनकी रक्षा नहीं करते। अब गुने पाभरना माहिए:' जो मन में रोष और मंगोपदोनों है। मुलपति पर देख मादीर के पास बारा और बड़ी पति के माप दोला
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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