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________________ वंदन २९. क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते वच । स्वभावनियताः प्रजाः समयतंत्रवृत्ताः क्वचित् ॥ स्वयंकृतभुजः क्वचित् परकृतोपभोगाः पुननं चाविशदवाददोपमलिनोऽस्यहो विस्मयः ॥ - महावीर प्रभो ! तुम्हारा वचन कहीं नियति का पक्षपात कर रहा है, कहीं जनता को स्वभाव से अनुशासित वता रहा है, कहीं कालतंत्र के अधीन कर रहा है, कहीं लोगों को स्वयंकृत कर्म भुगतने वाले और कहीं परकृत कर्म भुगतने वाले वता रहा है । फिर भी आश्चर्य है कि तुम विरुद्धवाद के दोष से मलिन नहीं हो । ३०. उदधाविव सर्वंसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ १ - जैसे समुद्र में सारी नदियां मिलती हैं, वैसी ही तुम्हारे दर्शन में सारी दृष्टियां मिली हुई हैं । भिन्न-भिन्न दृष्टियों में तुम नहीं दीखते जैसे नदियों में समुद्र नहीं दीखता । , २९५ ३१. स्वत एव भवः प्रवर्तते, स्वत एव प्रविलीयते पि च । स्वत एव च मुच्यते भवात् इति पश्यंस्त्वमिवाभवो भवेत् ।' - यह आत्मा स्वयं भव का प्रवर्तन करता है, स्वयं उसमें विलीन होता है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है, यह देखते हुए तुम अभव हो गए । ३२. यत्र तत्र समये यथा तथा योसि सोस्यभिधया यया तया । वीतदोपकलुषः स चेद् भवान्, एक एव भगवान् नमोस्तु ते ॥ * - जिस किसी समय में, जिस किसी रूप में, जो कोई जिस किसी नाम से प्रसिद्ध हो, यदि वह वीतराग है तो वह तुम एक ही हो । वाह्य के विभिन्न रूपों में अभिन्न मेरे भगवान् ! तुम्हें नमस्कार हो । १. द्वात्रिंशिका ३८ वंदनाकार- सिद्धसेन दिवाकर | २, दाविशिवा ४।१५ । ३. द्वातिशिका ४ | २६ ४. अयोगपवच्छेदद्वातिशिका २६ | वंदनाकार - नाचार्य हेमचन्द्र |
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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