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________________ वंदना २९३ २१. तथा परे न रज्यन्ते, उपकारपरेऽपरे । यथापकारिणि भवान् , अहो । सर्वमलौकिकम् ॥' -भगवन् ! दूसरे लोग उपकार करने वालों पर भी वैसी करुणा प्रदर्शित नहीं करते जैसी तुमने अपकार करने वालों पर प्रदर्शित की। यह सब अलौकिक है। २२. एकोहं नास्ति मे कश्चिन्, न त्राहमपि कस्यचित् । त्वदंह्रिशरणस्थस्य, मम दैन्यं न किंचन ॥ - मैं अकेला हूं। मेरा कोई नहीं है। मैं भी किसी का नहीं हूं। फिर भी तुम्हारे चरण की शरण में स्थित हूं, इसलिए मेरे मन में किंचित् भी दीनता नहीं है। २३. तव चेतसि वर्तेहं, इति वार्तापि दुर्लभा। मच्चित्ते वर्तसे चेत्त्वमलमन्येन केनचित् ।' -मैं तुम्हारे चित्त में रहूं, यह बात दुर्लभ है। तुम मेरे चित्त में रहो, यह हो जाए तो फिर मुझे और कुछ नहीं चाहिए। २४. वीतराग ! सपर्यातः, तवाज्ञापालनं परम् । आज्ञाराद्धा विराद्धाच, शिवाय च भवाय च ।। आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा। आस्रवः सर्वथा हेय, उपादेयश्च संवरः ।। ~वीतराग ! तुम्हारी पूजा करने की अपेक्षा तुम्हारी आज्ञा का पालन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है । आज्ञा की आराधना मुक्ति के लिए और उसकी विराधना बंधन के लिए होती है। तुम्हारी शाश्वत आज्ञा है कि हेय और उपादेय का विवेक करो। आधव (वन्धन का हेतु) सर्वथा हेय है और संवर (बन्धन का निरोध) सर्वथा उपादेय है। १. पोतरागस्वत १४१५ । २. पोतरागस्तव १७७ । ३. पीतरागस्तव १६१ । ४. वीतरागस्तव १६।४।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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