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________________ १८ श्रमण महावीर भाई की वेदना से द्रवित भी थे। वे उन्हें प्रसन्न कर अभिनिष्क्रमण करना चाहते थे। उनकी करुणा और अहिंसा में प्रकृति सौकुमार्य का तत्त्व बहुत प्रबल था। कुमार अपनी बात को समेटने के लिए नंदिवर्द्धन के कक्ष में आए । चाचा और भाई को मंत्रणा करते देख प्रफुल्ल हो उठे। उनकी मंत्रणा का विषय मेरा अभिनिष्क्रमण ही है, यह समझते उन्हें देर नहीं लगी। वे दोनों को प्रणाम कर उनके पास बैठ गए। ___ सुपार्श्व ने वर्द्धमान के अभिनिष्क्रमण की बात छेड़ दी। नंदिवर्द्धन ने कहा- 'चुल्लपिता! यह अकांड वज्रपात है। इसे हम सहन नहीं कर सकते। कुमार को अपना निर्णय बदलना होगा । मैं पहले ही कुमार से यह चर्चा कर चुका हूं। आज हम दोनों बैठे हैं। मैं चाहता हूं, अभी इस बात का अंतिम निर्णय हो जाए।' "भैया ! अंतिम निर्णय यही है कि आप मेरे मार्ग में अवरोध न बनें,' कुमार ने बड़ी तत्परता से कहा। ___ नंदिवर्द्धन बोले, 'कुमार ! यह कथमपि संभव नहीं है। मैं जानता हूं कि तुम्हारी अहिंसा तुम्हें घाव पर नमक डालने की अनुमति तो नहीं देगी।' नंदिवर्द्धन ने इतना कहा कि कुमार विवश हो गए। 'मुझे निष्क्रमण करना है। इसमें मै परिवर्तन नहीं ला सकता। मैं महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक यात्रा प्रारम्भ कर रहा हूं। इस कार्य में मुझे आपका सहयोग चाहिए। फिर आप मुझे क्यों रोकना चाहते हैं,' कुमार ने एक ही सांस में सारी बातें कह डालीं। नंदिवर्द्धन जानते थे कि कुमार सदा के लिए यहां रुकने वाले नहीं हैं, इसलिए असंभव आग्रह करने से कोई लाभ नहीं। उन्होंने कहा-'कुमार! मैं तुम्हें रोकना चाहता हूं पर सदा के लिए नहीं।' 'फिर कब तक?' 'मैं चाहता हूं तुम माता-पिता के शोक-समापन तक यहां रहो, फिर अभिनिष्क्रमण कर लेना।' 'शोक कब तक मनाया जाएगा? 'दो वर्ष तक । 'बहुत लम्बी अवधि है।' 'कुछ भी हो, इसे मान्य करना ही होगा।' सुपार्श्व भी नंदिवर्द्धन के पक्ष का समर्थन करने लगे। कुमार ने देखा, अव १, आवश्यकचूणि, पूर्वभाग, पृ० २४६; आचारांगचूणि, पृ० ३०४ ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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