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________________ संघ-भेद २६१ कहा -'बिछौना बिछा दो।' श्रमण बिछौना विछाने लगे। जमालि शारीरिक वेदना से अभिभूत हो रहा था । उसने आतुर स्वर में पूछा-'क्या बिछौना बिछा चुके ?' श्रमणों ने कहा-'भंते ! विछाया नहीं, बिछा रहे हैं।' श्रमणों का उत्तर सुन जमालि के मन में तर्क उठा-'भगवान् महावीर क्रियमाण को कृत कहते हैं। जो किया जा रहा है, उसे किया हुआ कहते हैं । किन्तु यह सिद्धान्त परीक्षण की कसौटी पर सही नहीं उतर रहा है । मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा हूं जो बिछौना बिछाया जा रहा है, वह बिछा हुआ नहीं है । यदि बिछा हुआ होता तो मैं उस पर सो जाता।' जमालि ने श्रमणों को आमंत्रित कर अपने मन का तर्क उनके सामने रखा । कुछ श्रमणों को जमालि का तर्क बहुत अच्छा लगा। कुछ श्रमणों ने उसे अस्वीकार कर दिया। जमालि महावीर के संघ से मुक्त होकर स्वतन्त्र विहार करने लगा। कुछ शिष्य जमालि के साथ रहे और कुछ उसे छोड़ भगवान् के पास चले गए। जमालि स्वस्थ हो गया। वह श्रावस्ती से प्रस्थान कर चम्पा में आया । भगवान् महावीर उसी नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में विहार करते थे। जमालि भगवान के पास आया। भगवान के सामने खड़ा रहकर वह बोला-'आपके अनेक शिष्य अ-केवली (असर्वज्ञ) रहकर अ-केवली-विहार कर रहे हैं, किन्तु मैं अ-केवली-विहार नहीं कर रहा हूं। मैं केवली (सर्वज्ञ) होकर केवली-विहार कर रहा हूं।' ___ जमालि की गर्वोक्ति सुनकर भगवान के प्रधान शिष्य गौतम ने कहा'जमालि ! केवली का ज्ञान पर्वत, स्तम्भ या स्तूप से आवृत नहीं होता। तुम यदि केवली हो, तुम्हारा ज्ञान यदि अनावृत है तो मेरे इन दो प्रश्नों का उत्तर दो' १. लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? २. जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? जमालि गौतम के प्रश्न सुन शंकित हो गया। वह गौतम के आशय को समझने का प्रयत्न करता रहा पर वह समझ में नहीं आया, तब मौन रहा। __ भगवान् ने जमालि को सम्बोधित कर कहा-'जमालि ! मेरे अनेक शिष्य ऐसे हैं जो अ-केवली होते हुए भी इन प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं। फिर भी वे तुम्हारी भांति अपने आपको केवली होने की घोषणा नहीं करते। _ 'जमालि ! लोक शाश्वत है। यह लोक कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा- ऐसा नहीं है । इसलिए मैं कहता हूं, यह लोक शाश्वत है। 'जमालि ! यह लोक विविध कालचक्रों से गुजरता है, इसलिए मैं कहता हूं कि यह लोक अशाश्वत है। 'जमालि ! जीव कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं रहेगा-ऐसा नहीं है । इसलिए मैं कहता हूं, यह जीव शाश्वत है।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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