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________________ २२० श्रमण महावीर का हनन निर्दोष है। इस प्रकार की हिंसा का उन्मूलन करने के लिए भगवान् ने आत्म-तुला की भाषा का प्रयोग किया। भगवान् ने उनसे कहा-~~'मैं आप सबसे पूछना चाहता हूं कि आपको सुख अप्रिय है या दुःख अप्रिय है ?' उन्होंने नहीं कहा कि सुख अप्रिय है। यह प्रत्यक्ष विरुद्ध वात वे कैसे कहते ? उन्होंने कहा-'हमें दुःख अप्रिय है।' तब भगवान् ने कहा-'जैसे आपको दुःख अप्रिय है, वैसे ही दूसरे प्राणियों को दु.ख अप्रिय है । प्राण का हरण दुनिया में सबसे बड़ा भय है । फिर आप लोग हिंसा को अहिंसा का जामा कैसे पहनाते हैं ? धर्म के नाम पर हिंसा का समर्थन कैसे करते हैं ?' इस अद्वैत की भाषा में मारने वाला व्यक्ति मारे जाने वाले व्यक्ति से भिन्न है। व्यक्तित्व की भिन्नता होने पर भी दोनों में एक धर्म समान है। वह है दुःख की अप्रियता। इस समान धर्म की अनुभूति होने पर हिंसा की वृत्ति शान्त हो जाती है। पुराने जमाने में पंचायत समाज की प्रभावी संस्था थी। पंच का फैसला न्यायाधीश के फैसले की भांति मान्य होता था। एक व्यक्ति पर अपने पड़ोसी की भैंस चुराने का आरोप आया। मामला पंचों तक गया। पंच न्याय करने बैठे। अभियुक्त को सामने बैठा दिया। वह अभियोग स्वीकार नहीं कर रहा था। पंचों ने धर्म-न्याय करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक तवा गर्म करवाया। वह अग्निमय हो गया। पंचों ने निर्णय सुनाया कि यह गर्म तवा इसके हाथ पर रखा जाएगा। इसका हाथ नहीं जलेगा तो यह चोरी के आरोप से मुक्त समझा जाएगा और यदि इसका हाथ जल गया तो इस पर लगाया गया चोरी का आरोप सिद्ध हो जाएगा। अभियुक्त ने इस निर्णय को स्वीकार कर लिया। एक पंच उठा। संडासी से तवा पकड़ अभियुक्त के हाथ पर रखने लगा। उसने हाथ खींच लिया। पंच ने उसे डांटा। वह बोला--'डांटने की कोई आवश्यकता नहीं है। पंच का हाथ तो मेरा हाथ है। पंच की संडासी तो मेरी संडासी है। पंच महोदय ! आप तो चोर नहीं हैं ? आप इस तवे को हाथ से उठाकर दीजिए, मेरा हाथ इसे झेलने को तैयार है।' इस समानता के सूत्र ने निर्णय का मार्ग बदल दिया। पंच चुपचाप अपने आसन पर बैठ गया। भगवान् महावीर ने इस समानता के सूत्र द्वारा हज़ारों-हजारों व्यक्तियों को जागृत किया। भगवान् बुद्ध ने 'बहुजनहिताय' का उद्घोष किया। भगवान् महावीर ने 'सर्वजीवहिताय' की उद्घोषणा की। गौतम ने पूछा-'भंते ! शाश्वत धर्म क्या है ?' भगवान् ने कहा-'अहिंसा।'
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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