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________________ १५४ श्रमण महावीर सबके साथ संपर्क साधना । पंडिताई की भाषा में ऐसा होना सम्भव नहीं था। इसलिए भगवान् ने जन-भाषा को सम्पर्क का माध्यम बनाया। प्राकृत का अर्थ है-प्रकृति की भाषा, जनता की भापा। भगवान जनता की भाषा में बोले और जनता के लिए वोले इसलिए वे जनता के हो गए। उनका संदेश बालकों, स्त्रियों, मंदमतियों और मूों तक पहुंचा। उन सबको उससे आलोक मिला। ___ महावीर ईश्वरीय संदेश लेकर नहीं आए थे। उनका संदेश अपनी साधना से प्राप्त अनुभवों का संदेश था। इसलिए उसे जनता की भाषा में रखने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं थी। उस समय कुछ पंडित जनता को ईश्वरीय संदेश देने की घोषणा कर रहे थे । ईश्वरीय संदेश भला जनता की भाषा में कैसे हो सकता है ? वह उस भाषा में होना चाहिए जिसे जनता न समझ सके । यदि उसे जनता समझ ले तो वह एक वर्ग की धरोहर कैसे बन जाए ? महावीर ने उस एकाधिकार को भंग कर दिया। दर्शन के महान् सत्य जनता की भाषा में प्रस्तुत हुए। धर्म सर्व-सुलभ हो गया । स्त्री और शूद्र नहीं पढ़ सकते-इस आदेश द्वारा स्त्री और शूद्रों को धर्मग्रन्थ पढ़ने से वंचित किया जा रहा था। महावीर के उदार दृष्टिकोण से उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़ने का पुनः अधिकार मिल गया। 'भाषा का आग्रह हमें कठिनाई से नहीं उबार सकता?--महावीर का यह स्वर आज भी भाषावाद के लिए महान् चुनौती है। ७. करुणा और शाकाहार श्रमण आर्द्रकुमार एकदण्डी परिव्राजक के प्रश्नों का उत्तर दे महावीर की दिशा में आगे बढ़ा। इतने में हस्ती-तापस ने उसे रोककर कहा ---'आर्द्रकुमार ! तुमने इन परिव्राजकों को निरुत्तर कर बहुत अच्छा काम किया । ये लोग कंद, मूल और फल का भोजन करते हैं। जीवन-निर्वाह के लिए असंख्य जीवों की हत्या करते हैं। हम ऐसा नहीं करते।' 'फिर आप जीवन-निर्वाह कैसे करते हैं ?' 'हम बाण से एक हाथी को मार लेते हैं। उससे लम्बे समय तक जीवननिर्वाह हो जाता है।' 'कन्द-मूल के भोजन से इसे अच्छा मानने का आधार क्या है ?' 'इसकी अच्छाई का आधार अल्प-बहुत्व की मीमांसा है। एकदण्डी परिव्राजक असंख्य जीवों को मारकर एक दिन का भोजन करते हैं, जब कि हम एक जीव को मारकर बहुत दिनों तक भोजन कर लेते हैं। वे बहुत हिंसा करते हैं। हम कम १. उत्तरज्झयणाणि, ६।१० : न चित्ता तायए भासा !
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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