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________________ १४८ श्रमण महावीर १. अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा | २. ऐकान्तिक आग्रह - दूसरों के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न न करना । भगवान् ने इन दोनों के सामने स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया । उसका अर्थ है -- अनन्त-धर्मात्मक वस्तु को अनन्त दृष्टिकोणों से देखना । गौतम ने पूछा - 'भंते ! ये धार्मिक व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा क्यों करते हैं ?' भगवान् ने कहा - 'गौतम । जिनका दृष्टिकोण एकान्तवादी होता है, वे अपने ज्ञात वस्तु-धर्म को पूर्ण मान लेते हैं । दूसरों द्वारा ज्ञात वस्तु-धर्म उन्हें असत्य दिखाई देता है । इसलिए वे अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा करते हैं ।' 'भंते ! क्या यह उचित है ?" गौतम के इस प्रश्न पर भगवान् ने कहा'अपने अभ्युपगम की प्रशंसा करने वाले, दूसरों के अभ्युपगम की निन्दा करने वाले, विद्वान् होने का दिखावा करते हैं, वे बंध जाते है, असत्य के नागपाश से । ' 'एकान्तग्राही तर्कों का प्रतिपादन करने वाले, धर्म और अधर्म के कोविद नहीं होते । वे दुःख से मुक्त नहीं हो पाते, जैसे पंजर में बंधा शकुनि अपने को मुक्त नहीं कर पाता पंजर से ।” ४. धर्म और वाममार्ग धार्मिक जगत् में वाममार्ग का इतिहास बहुत पुराना है । वाममागा आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते थे । उनके सामने धर्म का भी कोई मूल्य नहीं था । पर समाज में धर्म का मूल्य बहुत बढ़ चुका था । इसलिए उसे स्वीकारना सबके लिए अनिवार्य हो गया । १. सूयगडो, १1१1५० : सयं सयं पसं संता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्य विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया || २. सूयगडो, १1१1४६ : एवं तक्काए साता, धम्माधम्मे अकोविया । दुक्खं ते णातिवति, सउणी पंजरं जहा ॥
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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