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________________ नई स्थापनाएं : नई परम्पराएं १३३ १. ईर्या-गतिशुद्धि का विवेक। . . २. भाषा–भापाशुद्धि का विवेक । ३. एषणा-भोजन का विवेक । ४. आदान-निक्षेप-उपकरण लेने-रखने का विवेक । ५. उत्सर्ग-मल-मूत्र के विसर्जन का विवेक । इन समितियों का विधान कर भगवान् ने साधु-संघ के सामने अहिंसा का व्यापक रूप उपस्थित कर दिया, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अहिंसा की व्यावहारिकता, उपयोगिता और सार्थकता का दृष्टिकोण प्रस्तुत कर दिया। उनका साधु-संघ अहिंसा की साधना में अत्यन्त जागरूक हो गया। भगवान जीवन की छोटी-छोटी प्रवृत्तियों पर बड़ी गहराई से ध्यान देते थे। वे किसी को दीक्षित करते ही उसका ध्यान इन छोटी-छोटी प्रवृत्तियों की ओर आकृष्ट करते। मेघकुमार सम्राट् श्रेणिक का पुत्र था । वह भगवान् के पास दीक्षित हुआ। मेघकुमार ने प्रार्थना की-'भंते ! मैं संयम-जीवन की यात्रा के लिए आपसे शिक्षा चाहता हूं।' उस समय भगवान् ने चलने, बैठने, खड़े रहने, सोने, खाने और बोलने में अहिंसा के आचरण की शिक्षा दी। जीवन की महानता का निर्माण छोटी-छोटी प्रवृत्तियों की क्षमता पर होता है-यह सत्य उनके समिति-विधान में अभिव्यक्त हो रहा है। भगवान् ने संयम की साधना के लिए तीन गुप्तियों का निरूपण किया१. मनगुप्ति-मन का संवर, केन्द्रित विचार या निविचार । २. वचनगुप्ति-वचन का संवर, मौन । ३. कायगुप्तिकाय का स्थिरीकरण, शिथिलीकरण, ममत्व-विसर्जन । भगवान् ने देखा-अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि संयम-साधना की निष्पत्तियां हैं। उनकी सिद्धि के लिए साधनों का सम्यक् चयन और अभ्यास होना चाहिए। भापासमिति और वचनगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है-जीवन में सत्य की प्रतिष्ठा। ईर्या, एषणा, उत्सर्ग, कायगुप्ति और मनगुप्ति के सम्यक अभ्यास का अर्थ है-- जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा । कायगुप्ति और मनगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है-~~-जीवन में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा। कायगुप्ति के सम्यक् अभ्यास का अर्थ है-जीवन में अपरिग्रह की प्रतिष्ठा । १. नायाधम्मकहानो, १११५० । २ उत्तरसपणाणि, २४११,२।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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