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________________ १३० श्रमण महावीर भगवान् ने जितना बल अहिंसा पर दिया, उतना ही बल ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर दिया। उनकी वाणी पढ़ने वाले को इसकी प्रतिध्वनि पग-पग पर सुनाई देती है। _भगवान ने कहा-'जिसने ब्रह्मचर्य की आराधना कर ली, उसने सब व्रतों की आराधना कर ली। जिसने ब्रह्मचर्य का भंग कर दिया, उसने सब व्रतों का भंग कर दिया।" जो अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करते, वे मोक्ष जाने वालों की पहली पंक्ति में भगवान् का यह स्वर उनके उत्तराधिकार में भी गुंजित होता रहा है। एक आचार्य ने लिखा है---'कोई व्यक्ति मौनी हो या ध्यानी, वल्कल चीवर पहनने वाला हो या तपस्वी, यदि वह अब्रह्मचर्य की प्रार्थना करता है, तो वह मेरे लिए प्रिय नहीं है, भले फिर वह साक्षात् ब्रह्मा ही क्यों न हो। भगवान् की आत्म-निष्ठा और अनुत्तर इन्द्रिय-विजय ने ब्रह्मचर्य-विकास के नए आयाम खोल दिए। उनसे पूर्व अब्रह्मचर्य को अनेक दिशाओं से प्रोत्साहन मिल रहा था। कुछ धर्म-चिन्तक 'संतान पैदा किए बिना परलोक में गति नहीं होती'इस सिद्धान्त का प्रतिपादन कर विवाह की अनिवार्यता प्रतिपादित कर रहे थे। कुछ संन्यासी अब्रह्मचर्य को स्वाभाविक कर्म बतलाकर उसकी निर्दोषता प्रमाणित कर रहे थे। वे कह रहे थे-जैसे व्रण को सहलाना स्वाभाविक है वैसे ही वासना के व्रण को सहलाना स्वाभाविक है। इन दोनों धारणाओं के प्रतिरोध में खड़े होकर भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य को इतना मूल्य दिया कि उनके उत्तर-युग में गृहबास में रहकर भी ब्रह्मचारी रहने को जीवन की सार्थकता समझा जाने लगा। भगवान् दीक्षित हुए तब उनके पास केवल एक वस्त्र था। कुछ दिनों बाद उसे भी छोड़ दिया। वे मूर्छा की दृष्टि से प्रारम्भ से ही निर्ग्रन्थ थे, किन्तु वस्त्रत्याग के बाद उपकरणों से भी निर्ग्रन्थ हो गए। तीर्थ-प्रवर्तन के बाद भगवान ने निर्ग्रन्थों को सीमित वस्त्र और पान रखने की अनुमति दी और वह केवल उन्हीं निर्ग्रन्थों को जो लज्जा पर विजय पाने में असमर्थ थे। महावीर के इन परिवर्तनों ने भगवान पार्श्व और स्वयं उनके शिष्यों में एक प्रश्न पैदा कर दिया। केशी और गौतम की चर्चा में इसका स्पष्ट चिन्न मिलता है। १. पाहावागरणाई, ६३ । २. पन्हावागरणा, ३ । ३. जर ठानी जा मोगी, जइ झागी वक्कली तवस्ती वा । परतो र अब, वंमा वि न रोयए मज्झं ।।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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