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________________ श्रमण: महावीर इस उगते अंकुर को ही उखाड़ फेंकना चाहिए। यह चिनगारी है। इसे फैलने का अवसर देना समझदारी नहीं होगी। बीमारी का इलाज प्रारम्भ में ही न हो तो फिर वह असाध्य बन जाती है। अब विलम्ब करना श्रेय नहीं है। मैं वहां जाऊं और श्रमण नेता को पराजित कर वैदिक धर्म में दीक्षित करूं । इसके दो लाभ होंगे १-हमारी यज्ञ-संस्था को एक समर्थ व्यक्ति प्राप्त हो जाएगा। २-हज़ारों-हजारों लोग श्रमण-धर्म को छोड़ वैदिक धर्म में दीक्षित हो जाएंगे। “इन्द्रभूति ने इस विषय पर गंभीरता से सोचा। अपनी सफलता के मधुर स्वप्न संजोए। शिष्यों को साथ ले, वहां से चलने को तैयार हो गए। इतने में ही उन्हें कुछ लोग वापस आते हुए दिखाई दिए। इन्द्रभूति ने उनसे पूछा- . 'आप कहां से आ रहे हैं ?' 'भगवान् महावीर के समवसरण से।' 'आप लोगों ने महावीर को देखा है ? वे कैसे हैं ?' 'क्या बताएं, इतना प्रभावशाली व्यक्ति हमने कहीं नहीं देखा। उनके चेहरे पर तप का तेज दमक रहा है।' 'वहां कौन जा सकता है ?' 'किसी के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है।' 'वहां काफी लोग होंगे ?' 'हज़ारों-हज़ारों की भीड़। पैर रखने को स्थान नहीं। फिर भी जो लोग जाते हैं, वे निराश होकर नहीं लौटते।' इन्द्रभूति के पैर आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गए। मन में सन्देह उत्पन्न हो गया। उन्होंने सोचा-महावीर कोई साधारण व्यक्ति नहीं है । लोगों की बातों से लगता है कि उनके पास साधना का बल है, तपस्या का तेज है। क्या मैं जाऊं ? मन ही मन यह प्रश्न उभरने लगा। इसका उत्तर उनका अहं दे रहा था । अपने पांडित्य पर उन्हें गर्व था। वे शास्त्र-चर्चा के मल्लयुद्ध में अनेक पंडितों को परास्त कर चुके थे। वे अपने को अजेय मान रहे थे। इस सारी परिस्थिति से उत्पन्न अहं ने उन्हें फिर महावीर के पास जाने को प्रेरित किया। उनके पैर आगे बढ़े। उनके पीछे हज़ारों पैर और उठ रहे थे। शिष्यों द्वारा उच्चारित विरुदावलियों से आकाश गंज उठा। पावा के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर केन्द्रित हो गया। राजपथ स्तब्ध हो गए। इन्द्रभूति महासेन वन के बाहरी कक्ष में पहुंचे । समवसरण को देखा । उनकी आंखों में अद्भुत रंग-रूप तैरने लगा। उनका मन अपनत्व की अनुभूति से उद्वेलित हो गया। उन्हें लगा जैसे उनका अहं विनम्रता की धारा में प्रवाहित हो रहा है ।
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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