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________________ नारी का बन्ध-विमोचन : ९१ सामने एकत्र हो गए। दासवर्ग हर्प के मारे उछलने लगा। महाराज शतानीक भी वहां पहुंच गए। महारानी मृगावती उनके साथ थी। नंदा हर्ष से उत्फुल्ल हो रही थी। अमात्य भी एक बहुत बड़ी चिन्ता से मुक्त हो गया। धनावह लुहार को साथ लिये अपने घर पहुंचा। वह अनेक प्रकार की बातें सुन रहा था। उसका मन आश्चर्य से आंदोलित हो गया। उसने भीतर जाकर देखा-चंदना दिव्य-प्रतिमा की भांति अचल खड़ी है। वह हर्प-विभोर हो गया। अव चंदना के बारे में लोगों की जिज्ञासा बढ़ी। वे उसके दर्शन को लालायित हो उठे। वह घर से बाहर आई। चंदना के जय-जयकार के स्वर में जनता का तुमुल विलीन हो गया। संपुल महाराज दधिवाहन का कंचुकी था । चंपा-विजय के समय महाराज शतानीक उसे बंदी बना कौशांबी ले आए थे। वह आज ही राजाज्ञा से मुक्त हुआ था। वह महाराज के साथ आया। उसने चंदना को पहचान लिया। वह दौड़ा। चंदना के पैरों में नमस्कार कर रोने लगा। चंदना ने उसे आश्वस्त किया। दोनों एक-दूसरे को देख अतीत के गहरे चितन में खो गए। महाराज ने कंचुकी से पूछा, 'यह कन्या कौन है ?' कंचुकी ने कहा, 'महाराज दधिवाहन की पुत्री वसुमती है।' मृगावती बोली, 'तब तो यह मेरी बहन की पुत्री है।' महाराज ने चंदना से राजप्रासाद में चलने का आग्रह किया। उसने उसे ठुकरा दिया। महारानी ने फिर बहुत आग्रह किया। चंदना ने उसे फिर ठुकरा दिया । महारानी ने चंदना की ओर मुड़कर पूछा, 'तुम हमारे प्रासाद में क्यों नहीं चलना चाहती ?' 'दासी की अपनी कोई चाह नहीं होती।' 'तुम दासी कैसे ?' 'यह तो महाराज शतानीक ही जानें, मैं क्या कहूं ?' महाराज का सिर लज्जा से झुक गया। उसे अपने युद्धोन्माद पर पछतावा होने लगा। वह चंदना को दासी बनने का कारण समज गया। उसने धनावह को बुलाया। चंदना सदा के लिए दासी-जीवन से मुक्त हो गई। भगवान् का मौन सत्याग्रह दासी का मूल्य बढ़ाकर दासत्व को जड़ पर तीन कुठाराघात कर गया। Rane १ आपायकल, पूर्वभाग, १० २१६.६२० :
SR No.010542
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages389
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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