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________________ (७०) इसका पैर विरोध द्वीप भाव प्रथम तो होता ही नही अगर कहीं किसी पर होता भी है तो पुत्र के प्रति पिता की भांति उसे ताड़ना देकर उसे सत्पथ पर लाने के लिये स्नेहान्वयी रोप हुवा करता है जैसा कि विष्णुकुमार स्वामी का रोष कि ब्राह्मण पर हुवा था तो जिसकी कि गणना द्वष में नही होनी चाहिये । यद्यपि इस सम्यग्दृष्टि का खुद का भोलेपन बगेरह से कोई अविनय कर देता है तो उसकी तरफ यह कुछ ध्यान नहीं देता परन्तु किसी के द्वारा किये गये हुये पूज्य पुरुषों के अविनय को यह कभी सहन नही कर सकता क्यों कि आप उनका यथाव्यवहार पूर्ण विनय करता है। यद्यपि शरीर से आत्मा को भिन्न मानता है अतः शरीर में से बहने वाले पसीने को आत्मा की क्रिया न मान कर उसे शरीर की क्रिया मानता है, परन्तु खाना, पीना, स्त्री सम्भोग करना और कपड़ा पहनना जैसी क्रियावों को निरे शरीर की ही क्रिया नहीं मानता वल्कि वहां पर शरीर और आत्मा को एक जान कर उन्हें तो अपने ही द्वारा की गई हुई मानता है। इस प्रकार निश्चयनय सहित व्यवहारनय का अनुयायी होता है। हां पूर्वोक्त मिथ्या दृष्टि की भांति निरे. व्यवहार का ही अनुयायी हो सो बात अब नही है किन्तु सद्व्यवहार का धारक होता है । क्यों कि इसका दर्शन मोह तो गलगया फिर भी चारित्र मोह बाकी है ताकि रागांश के वश होकर इसे ऐसा करना होता है और इसी लिये यह सराग सम्यग्दृष्टि
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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