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________________ ( ५१ ) चेप्टायें परावलम्व को लिये हुये होती हैं अतः अज्ञान चेतनामयी होती हैं क्यों कि इन दोनों में ही अधिक हो या होन किन्तु ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का बन्ध इस जीव के होता ही रहता है । हां इससे उपर चलकर जहां पर पापबन्ध और पुण्य बन्ध दोनों प्रकार के बन्ध को करने वाले अशुभ एवं शुभ दोनों तरह के भाव से बिलकुल रहित पूर्ण वीतरागदशा हो करके इस आत्मा की एकान्त श्रात्मनिमग्न वृत्ति हो लेती है, उसका नाम ज्ञान चेतना है । जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सूरि ने समयसारकलशा में लिखाते हैं - रागद्वेष विभावमुत्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामि समस्त कर्म विकला मिन्नास्तदात्योदयात् दूरारूढ़ चरित्रवैभववला चवचिदर्चिर्मयी विन्दन्ति स्वरसाभिपिक्त भुवनां ज्ञानस्य संचेतनां भावार्थ - जो सर्वथा राग द्वेष रूप विभाव से रहित होकर स्वभाव को अखण्डरूप से प्राप्त कर चुके, भूतभावि और वर्तमानकालीन कर्मोदय से दूर हो लिये, समस्त परद्रव्यके त्याग स्वरूप दृढतर चारित्र के बल से प्रकाशमान चैतन्य ज्योतिवाली और अपने सहजभाव से विश्वभर में व्याप्त होनेवाली ऐसी भगवती ज्ञान चेतना का वे ही अनुभव करते हैं वेही उसे पात हैं। बाकी के उससे नीचे के जीव तो अज्ञान वेतनावाले होते हैं वह ज्ञान-चेतना, कर्मफल चेतना और कर्म चेतना के भेद से दो भागों में विभक्त होती है जिसमें से
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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