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________________ ( ५० ) का समागम जीव के साथ इसकी मन वचन और काय की चेष्टा के द्वारा ही होता है अतः कारण में कार्य का उपचार करके उस चेप्टा को भी कर्म कह सकते है । और उसके करने में इस आत्मा की दो तरह की भावना हुवा करती है। एक तो शरीरको और आत्मा को एकमेक मानते हुये वहिराल्मापन के द्वारा जैसे कि मैं खालू,पीलू, सोलू एवं अपने आपको मोटा ताजा बनालू इत्यादि रूपमें 1 दूसरी वह जो शरीर से आत्मा को भिन्न मानते हुये अपने भले के लिये । जैसे भगवान का भजन करल, 'गुरुखों की सेवा कर, व्रतउपवास करलू इत्यादि रूपमें । पहलेबाली वासना से किया हुवा कर्म पापकर्म कहलाता है क्यों कि वह इस आत्मा को संसार में ही पछाड़े हुये रहता है किन्तु दूसरी वासना से किया हुवा कर्म इसको पवित्रता की ओर लेजाने वाला होने से पुण्य कर्म होता है। कभी कमी वेहिरोल्मा जीव भी ईश्वरोपासना सरीखी चेष्टा किया करता है परन्तु वह उसकी चेप्टा अनात्मवृत्ति को ही लियेहुये होती है अतः वह अपुण्य कहलाता है। इसी प्रकार अन्तरात्मा जीव भी कभी कहीं खाना पीना वगेरह शरीरानुविधायिकार्य करता है किन्तु वह अनतिवृत्तितया नरकादि का कारण न होने से अपाप कर्म कहलाता है। स्पप्ट रूपमें चतुर्थगुण स्थान से नीचेवाले की चेष्टा का नाम पाप और उससे उपर जहां तक सराग चेप्टा रहे उसका नाम पुण्य है ऐसा सममना चाहिये । एवं यह दोनों ही प्रकार की
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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