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________________ ( ३५ ) ( जो देखने न दे ) वेदनीय ( जो अड़चनकारक चीजों को जुटावे ) मोहनीय ( जो भुलावे मे डाले ) श्रायु (जो जन्म से लेकर मरण पर्यन्त शरीर मे रोके हुये रक्खे) नाम ( जो काना खोड़ा कुबड़ा बौना आदि नाना हालत करता रहे ) गोत्र ( जो कभी ऊचा तो कभी नीचा कुल में जन्म दे ) अन्तराय ( हर भले कार्य में रोड़ा अटकाया करे ) यह आठ कर्म कहलाते हैं। इस आठ तरह के प्रकृति बन्ध मे जो काल की मर्यादा होती है वह स्थिति बन्ध के नाम से कही गई है | ३| कोई समय का कोई कर्म अपना साधारणसा प्रभाव आत्मा पर दिखलाता है तो कोई जोरदार, इसको अनुभागबन्ध समझना चाहिये। इस प्रकार जो इस आत्मा के बन्ध पड़ता है जिसकी कि वजह से इस जीव को कष्ट के गढ्ढे में गिरना पड़ रहा है, उसका और खुलाशा हाल अगर पाठकों को जानना हो तो गोमट्टसार वगेरह प्रन्थों से जान सकते हैं हम यहां अधिक नही लिखते । हां जो करता है सो भोगता है परन्तु बान्धता है वह काट भी सकता है वह कैसे सो नीचे बताते हैं | विदारयेद्वन्ध सुपाचढङ्गः पुनर्नपापाय कृतान्वरंगः । काराधिकाराद्भवतोऽतिगस्यास्यस्यात्सुखं दुःखमर्थात्रिनस्यात् अर्थात् - उपर बताया जाचुका है कि यह संसारी जीव कर्मों से बन्धा हुवा है जो कि कर्म विपाकान्त हैं गेहूं आदि की खेती की भान्ति अपना फल देने पर नष्ट होजाने वाले होते
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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