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________________ ब्रह्मचर्य-सूत्र (६०) जैसे बहुत ज्यादा इंधनवाले जगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता। ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शरीर की गोमा और टीप-टाप का कोई भी शृगार-सम्बन्धी काम नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचारी भिक्षु को गब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांच प्रकार के काम-गुणो को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए । स्थिरचित्त भिक्षु, दुर्जय काम-भोगो को हमेशा के लिए छोड दे । इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुंचने की सभावना हो, उन सब का-स्थानो का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए। देवतामो-सहित समस्त ससार के दुख का मूल एकमात्र काम-भोगो की वासना ही है । जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुखों से छट जाता है।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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