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________________ ( १८६ ) यह भव्यत्वशक्ति के पूर्णपरिपाक का फल है इसके होजाने पर फिर पुनर्भवधारण नहीं करना पड़ता है, किन्तु इससे आगे क्या होता है सो बताते है - पृथक्त्वायवितकस्तु यः श्रेणावात्मरागयोः क्षीणमोहपदेतस्मा येकत्वायाधुनात्मनः । ६३ ॥ ...अनेन: पुनरेतस्य घातिकर्मप्रणाशतः आत्मनोऽस्तु च परमोपयोगो विश्ववस्तुवित् ।।६४॥ अर्थान्-वितर्क यानी आत्मा के द्वादशाङ्गरूप श्रुतज्ञान का व्यापार या यों कहो कि विचार की एकाग्रता श्रेणिकाल मे और ग्यारहवंगुणस्थान में भी आत्मा और रागको भिन्न भिन्न करने के लिये प्रवृत्त होती है जिससे कि इस आत्मा के शेषघातिकर्मो का-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय का नाश हो कर इस आत्मा का उपयोग शुद्धोपयोगपन को उलांघकर परमोपयोग वन जाता है । जो उपयोग पहले क्षायापशमिक था, अतः जिधर लगाया जाता था उधर हो लगता था और वात को न जानकर उसी को जानने लगता था। जब तक विषयों की तरफ झुका हुवा था तो विषयों को स्वीकार किये हुये रागद्वेष में फंस रहा था परन्तु जब वाह्यविषयों की तरफ से हटकर रागद्वेपरहित होते हुये वही उपयोग एक अपनी आत्मा मे हो तल्लीन होलिया तो यः आत्मवित् स सर्ववित् इस कहावत को चरितार्थ करते हुये विश्वभरकी तमाम वस्तुवों को एक साथ
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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