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________________ ( १८५ ) - किञ्च सम्पन्न स्वरूपाचरण का नाम ही यथाख्यात चरित्र भी है। सो यह यथाख्यात चारित्रदोप्रकारका होता है यही नीचे बताते हैविछिन्न श्रात्मभुबिरागनगोविनेतुग्न्तमुहूर्ततइयान पुनरम्युदेतु सम्बुद्धयेनु परमात्मन एव तावदन्मूल्यरागतरुमात्मकृतप्रभावः अर्थात्- जैसे किसी भी पेड़ को नष्ट करना होता है तो पहले तो उस कुल्हाड़े से काट कर गिरा दिया करते हैं और फिर जमीन में से उसकी जड़ों को भी खोद निकाल फैकदे तो ठीक होता है, यदि सिर्फ काटने का ही कार्य किया जाय, जड़ें ना निकाली जावे तो फिर वह फूट खड़ा होता है वैसे ही आत्मा में होने वाले रागभाव को दूर करने के लिये भी दो तरह की क्रिया होती है । कपायाश को दबाकर आत्मपरिणामो को निर्मल बना लिया जाता है, जैसे गदले पानी में फिटकड़ी वगेरह डाल कर के उसके कीचड़ को नीचे विठादिया तो पानी साफ होजाता है। इस क्रिया को उपशमश्रणी कहते है और इससे होनेवाली निर्मलता को. उपशान्तमोहदशा कहते हैं, यह एक अन्तमुहूर्तमात्र रहती है । बाद में फिर मोह का उदय हो आता है, अतः इसको प्रतिपाति, यथाख्यातचरित्र कहा जाता है। और जहां पर कपायांश को विलकुल दूर कर दिया जाया करता है उसे क्षपकणि एवं उससे होने वाली आत्मशुद्धि को क्षीणमोह बोला जाता है । इसमे मोह को सदा के लिये विदा मिलजाती है अतः इसको अप्रतिपातियथाख्यातचरित्र कहते हैं।
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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