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________________ ( १६७ } - से पलट कर वह भी सम्यग्ज्ञान बन जाता है, भले ही वह एक चीज को छोड़ कर दूसरी को जान रहा हो, आत्मोपयोगी न होकर खीसम्भोगादि में लगरहा हो परन्तु उसके सम्यग्ज्ञानत्व में कोई वट्टा नही होता वह सदा रहता है, अतः हर समय ज्ञानचेतना होती है । कर्म और कर्मफलरूप अज्ञानचेतना तो मिथ्यादृष्टि बहिरात्मजीव के ही मिथ्यात्व की वजह से हुवा करती है । सम्यग्दृष्टि के तो जैसे सम्यग्दर्शन है वैसे ही उसके साथ में अखण्डरूप ज्ञानचेतना भी होती है जैसा कि पण्डित राजमल जी काष्ठासंघी ने अपनी पश्चाध्यायी में लिखा है किश्च सर्वत्र सप्टेनित्यं स्याब्जानचेतना अविच्छिन्नप्रवाहेण यद्वाऽखण्डकधारया ॥२॥ हां जब कि कोई चतुर्थगुणस्थानवर्ती अनतसम्यग्दृष्ट जीवात्मा स्त्री प्रसग कर रहा होता है या युद्ध में किसी को मार रहा है तो उस समय भी उसके प्रवृत्ति में उपर से ही कर्मफलचेतना या कर्मचेतनारूप अज्ञानचेतना होती है अन्तरंग में तो उसके ज्ञानचेतना ही बनी रहती है जैसाकि राजमल जी कृतपञ्चाध्यायी में ही लिखा हुवा है अस्तितस्यापिसद्दृष्टेकस्यचित् कर्मचेतना अपिकर्मफले सा स्यादर्थतोज्ञानचेतना ।।२७।। अ०२ मानलो कि एक आदमी जो कि ज्योतिष, वैद्यक, संगीत वगेरह अनेक तरह के शास्त्र पढा हुवा है और वह काम वैद्यक
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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