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________________ ( १५० ) - कि उस चौराणवे नम्बर की गाथा की टीका में श्रीअमृतचन्द्राचार्य जी ने भी लिखा है- एप खलु सामान्येनाज्ञानरूपो. भावः स मिथ्यादर्शनानानाविरतिरूपविविधः सविकारश्चैतन्यपरिणामः । थाना प्राचार्य महाराज का कहना है किजहां तक भी आत्मा मे विकारभाव है, फिर चाहे वह विपरीताभिनिवेश रूप हो या इष्टानिष्ट विचार रूप एवं चपलता रूप, किसी भी प्रकार का हो सभी अज्ञान चेतनामय होता है । हां यह बात अवश्य है कि-आत्मा का यह अनानचेतनारूप अशुद्धपरिमणन भी दो तरह का होता है- एक तो अशुभोपयोग, दूसरा शुभोपयोग । सो मिथ्यादृष्टि अवस्था में तो अशुभोपयोगरूप अजानचेतनापरिणाम होता है, जो कि घोरकर्मबन्ध करने वाला होता है किन्तु सम्यग्दर्शन हो जाने पर भी जहां तक रागांश रहता है वहां तक शुभोपयोगरूप अज्ञानचेतनापरिणाम, गृहस्थों के ही नहीं अपितु, मुनियों के भी होता है ताकि स्वल्प या स्वल्पतर नूतन कर्मबन्ध होता ही रहता है। जहा उपयोग की शुद्धता रूप ज्ञान चेतना हुई कि वन्ध का अभाव होलेता है ऐसा प्रवचनसार जी में भी लिखा हुआ है देखो समण सुद्धवजुत्ता सुहोपजुत्ता य होति समयसि । तेसु विसुद्धवजुत्ता अणसवा सासवासेसा ॥ ४५ ॥३॥ तात्पर्य यही कि- श्री समयसार जी में जिसको ज्ञानभाव या ज्ञान चेतना नाम से लिया गया है उसी को प्रवचन
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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