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________________ ( १४६ ) अबान चेतना होनी है जिसके कि होने पर वन्ध हुये विना नहीं रहता । यानी जान चेतना आत्मा के अशुद्धपरिणमन का ही नाम है । जैमा कि समयसार नामक ग्रन्थ मे लिखा हुवा है देखो पर म पाणं कुचं अप्पाणं पिय परं फिरन्तो सो। अएगा गमवो जीवो कम्माणं कारगो होदि ।।१२।। अर्थात्-पर को अपनाने वाला अथवा यों कहो कि अपने श्रापको पर यानी विकार रूप करने वाला जीव, अबानचंतना का धारक होता है जो कि निरन्तर नवीन बन्ध करता रहता है। परन्तु जो परपदार्थों को विलकुल नहीं अपनाता उनसे सर्वथा दूर हो रहता है, अपने आपको कभी भी विकृत नही होने देता अतः जो नूतन कर्म वध करने से रहजाता है वही ज्ञानचंतनावान होता है। जैसा कि वहीं उसके नीचे लिखा गया हुआ है देखो-। परमप्पाणमकुब्वं, अप्पाणं पिय परं अकुव्वन्तो। सोणणमयोजीवोकम्माणमकारगी होदि . ।। ६३ ॥ एवं दोनो तरह से लिखने का प्राचार्य श्री का सष्ट मतलव यही है कि-जो जरासा भी नूतनकर्मवन्ध करने वाला है वह अज्ञानी जीव है, अज्ञानचेतनावान् है । इसी लिये इससे आगे की गाथा में उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि- यहां पर अज्ञानशब्द का अर्थ- अतत्वश्रद्धान, चञ्चलज्ञान और अविरत परिणमन ये तीनों ही लेना चाहिये जैसा
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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