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________________ ( १२३ ) धम्म कहा ऋहणेण्यवाहिर जोगहि चावि अवज्जे । धम्मो पहावितव्यो जोवेमु पाणुकम्पाए ॥२॥ अर्थात्- तीर्थङ्कर चक्रवर्ती नारायणादि महा पुरुषों की कथा करने से, दान पूजादि कार्यों से,जोवों पर दया भाव करने से ऐसे और भी निर्दोष कार्यरूपमें अपने परिणामों के करने से धर्म प्रभावित होता है। हां यह बात दूसरी कि ऐसे कार्य में मन्यग्द्रप्टि जीव के प्रशस्त पुण्य का भी श्राव होता है सो अगर आश्रव होने मात्रसे धर्म न कहकर अधर्म कहा जावे तव तो आश्रय तो शुद्धोपयोग में भी होता है । परन्तु सम्यग्दृष्टि का शुभापयोग और शुद्धोपयोग ये दोनों धर्मरूप ही होते हैं। अधर्म तो मिथ्यात्व का नाम है जो कि मिथ्याप्टि में ही होता है अतः उसकी सभी क्रियायें अधर्म रूप ही होती है। खाना पीना बगेरह क्रियाये तो योग और उपयोग दोनों में अशुभ रूप होने से घोर अधर्म, अर्थात्-पापरूप होती है मगर वह जो भगवदुपासनादि क्रियाय करता है तो वहां पर भी उसके उपयोग तो अशुभ ही होता है सिर्फ योग शुभ होने की वजह से अप्रशस्त पुण्यका आश्रव होता है अतः पुण्य क्रियाये कही जाती हैं। . शड्ढा- वीतरागपन का नाम धर्म और मरागपन को अधर्म कहे तो क्या दोष है। ____उत्तर- ऐसा मानने से फिर बाहरवें गुण स्थान से नीचे वाले लोग सभी अधर्मी ठहर जाते हैं परन्तु हमारे मान्य
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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