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________________ धर्मस्य मंग्राहक एप यस्माद् धर्मात्मनानास्तु विनासतस्मान म्निह्य तवत्सं प्रतिधेनुतुल्यः सधर्मिणं वीच्यविवेककुल्य: ६० अर्थात्- वैसे तो सम्यग्दृष्टि जीव का प्राणी मात्रके प्रति प्रेमभाव होता है किन्तु किमी भी धर्मात्मा को वह देखपाता है नब तो बछड़े को देखकर गर की भांति उत्सुक ही हो लेता है। क्योंकि यह धर्म का ग्राहक होता है जो कि धर्मात्मावां के पास ही दीख पडता है धर्मात्मा को छोड़ कर धर्म अन्यत्र नही मिलता । यद्यपि प्रेम तो समारी प्राणियों में भी होता है, पति पत्नी में, भाई बहन में, पिता पुत्र में और अड़ोसी पड़ोसी में भी प्रम हुवा करना है जो कि अपने अपने मतलब को लिये हुये होता है जहा मतलब सधा कि उसमें कमी आ जाती है या वठले में विरोध भी आ धमकता है । परन्तु सम्यग्दृष्टि का धर्मात्मा के प्रति जो प्रेम होता है यह कुछ और ही प्रकार का होता है उसमें स्वार्थ का नाम भी न होकर यह केवलमात्र परमार्थ का पोषण करने वाला होता है उसका नाम वात्सल्य है । अब प्रभावनाङ्ग बनलाया जाता हैप्रभावयेदेष मदा स्वधर्म माप्नोतु लोकोयत एवशर्म । कदापि कुर्याधुपितं न कर्म प्रभिद्यते येनतुधर्ममर्म ६१ अर्थात् - उपयुक चंप्टा के धारक सम्यग्दृष्टि जीव को चाहिये कि वह अपने धर्म को निरन्तर वृद्धिंगत करता रहे
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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