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________________ (६४) थी इसी प्रकार सेयुद्धादिकार्यव्रजतोऽप्यमुष्य सम्वेगमावोहृदयं प्रपुष्य । प्रवर्ततेतेनविवेकखानिरयंसमायातिकुकर्महानि ॥ ४ ॥ अर्थात् उस सम्यग्दृष्टि जीव के हृदय में सम्वेग भाव भी हर समय बना रहता है । दुनियादारी के कार्यो में उत्सुकता उदासपन किन्तु धर्म के विषय में तत्परता होने को सम्वेग कहते हैं। सो यह गुण भी उसमे अखएड होता है ताकि अपनी तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार भले ही उसे युद्धादि सरीखे कठोर कार्यो में प्रवृत होना पड़े परन्तु वहां पर भी वह विचार से काम लेता है, उचितपन को छोड़ कर अनुपित पन की तरफ कभी नहीं जाता है । देखो कि महाभारत में कौरवों ने अनेक तरह के दुष्प्रहार किये, अभिमन्यु सरीखे बालक को विश्वास दिलाकर बुरी तरह से मार गिराया था उन्हें परास्त कर डालने की अर्जुन की पूर्ण प्रतिज्ञा और अभिलासा भी थी परन्तु जब गुरु द्रोणाचार्य उसके सम्मुख आ डटे 'और निर्दयता से उसके उपर प्रहार करने लगे तो आप ही तो उस प्रहार से बचने की चेष्टा करता था किन्तु द्रोणाचार्य पर पदले का प्रहार नहीं करता था, भले ही उस ऐसा करने में द्रोणं के वाणों से उस अर्जुन की महती सेना नष्ट होती रही, उस क्षति को भी सहन करता रहा बांकी गुरुदेव पर हाथ चलाना मेरा कार्य नहीं यह शोचते रह कर उसने द्रोण के वार
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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