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________________ ( ६० ) ही नही करता, यदि आत्मतत्व को मानलेवे तो मिध्यादृष्टि ही क्यों रहे ? यह तो श्रात्म शब्द का वाच्य इस शरीर को ही माने हुये है अतः स्वभाव से दूर जाकर यानी अपने धर्म से रहित हो कर अधर्मी बन रहा है यह बनी हुई बात है । विश्वास मासाद्यजिनोक्कवाचिकालेनतत्वार्थमियादसाचि । अंगीकृते धर्मिणि मातुधर्मः सूर्ये प्रकाशः स्फुरतीतिमर्म ॥ ४५ ॥ अर्थात् - हां अगर उस श्रात्म तत्व को जिन्होंने प्रस्फुट कर लिया है ऐसे श्री जिनभगवान के कहने पर विश्वासलावे उसे अपने मनमें धारण करे तो समय पाकर मोह गलने से उस आत्मतत्व का ठीक ठीक मतलब इसकी समझमें आसकता है उसे यह हृदय से स्वीकार कर सकता है और जब श्रात्मतत्व स्वीकृत होजाता है तो धर्मिके होने पर धर्म फिर सहज है जहां सूर्य है वहां प्रकाश अवश्य होता ही है इतना ही इसका संक्षिप्त भांव है। नकाललव्धिर्मविनोऽस्तिगम्याक्षयोपशान्तिप्रभृतिं परंयान् । जिनोक्ततत्वाध्ययनेप्रयत्नं कुर्याद्यदिष्टप्रविधायिरत्नं । ४६ ॥ अर्थात् सो काल लब्धि तो छद्मस्थ के ज्ञान से बाहर की चीज है वह तो इसके अनुभव मे आनेवाली नही है और जब कि मनुष्य शरीर धारण किये हुये है तो जिनवाणी के सुनने एवं समझने की योग्यता अपने आप प्राप्त है फिर ब
SR No.010540
Book TitleSamyaktva Sara Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanbhushan Maharaj
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages425
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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