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________________ सम्यक् आचार वहिरात्मा के कार्य रागद्वेष युक्त कुदेवों का पूजन कुदेवं प्रोक्तं जेन, रागादि दोम मंजुतं । कुन्यानं त्रति संपूर्ण, न्यानं चैव न डिस्टते ॥५२॥ जो रागद्वेपादिक मलों से पूर्ण हैं संतप्त हैं । जो विधि मिथ्याज्ञान की, कटु कालिमा से लिप्त हैं || जिनके हृदय अणुमात्र, सम्यग्ज्ञान से भी हीन हैं । वे हैं कुदेव, कुदेव यह कहते जिनेन्द्र प्रवीण हैं ॥ जो अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं, ऐसे प्रभु कहते हैं कि जो रागादि अनेक दोषों के घर हैं, जो कुमति, कुश्रुत और कुअवधि इन तीन ज्ञानों के धारी हैं और जिनके हृदय सम्यज्ञान से पूर्णतया रहित हैं, वे सब देव, कुदेवों की कोटि में आते हैं । माया मोह ममत्तस्य, अशुभ भाव तो सदा | तत्र देव व जाति, जत्र रागादि मंजुतं ॥ ५३ ॥ [ ३५ जो जीव मायाचारिता में, स्वत्व अपना खो चुके । जो अशुभ भावों की शरण में जा सदा को सो चुके ॥ वे ही कुमति वहिरात्मा, जो स्वपर भेद न जानते । ऐसे कुदेवों को ही अपना, देव कहकर मानते || जो दिन रात माया मोह के चक्कर में फँसे रहते हैं और जो अशुभ भावों के चिन्नवन में ही लीन रहा करते हैं, ऐसे बहिरात्मा प्राणी ही, संसार के रागों के वशीभूत होकर ऐसे मिथ्या देवों को, देव कहकर पुकारते हैं ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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