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________________ सम्यक् आचार बहिरात्मा वहिरप्पा पुदगलंदिस्टा, रच अनन्त भावना। परपंचं जेन निस्टंने वहिरप्पा मंमार अम्थितं ॥५०॥ जो पुद्गलों में आत्म-विस्मृत है. निरन्तर मग्न है । जो पुद्गलों के खेल में ही, रात-दिन संलग्न है ।। संसार-सागर में पड़े, रहना ही जिसका ध्येय है । वह ही प्रपंची जीव बस, बहिरात्मा अजेय है ।। जो पौनलिक पदार्थों को देखने में और उनकी रचना करने में अन्यन्न आनन्द मानना है. जिमका माग समय मांसारिक प्रपंचों में पड़े रहने में ही व्यतीत होता है और जो इस तरह अपने संमार की स्थिति दृढ़ बनाये रहता है. वही आत्मा बहिरात्मा कहलाता है। वहिरप्पा परपंच अर्थ च, तिक्तते जेवि चपनः । अप्पा परमप्पयं तुल्यं. देव देवं नमस्कृतं ॥५१॥ जड़ सृष्टि में ही लिप्त रहता है, सदा बहिरात्मा । उस मूढ़ पर अज्ञान की रहती, सतत छाई अमा ।। जिस आत्मा को नमन करते. इंद्र तक थकते नहीं । उस आत्म-मणि को काँच कहकर, फेंक देते जड़ वहीं ।। बहिरात्मा जीव मदा पुद्गलों के प्रपंच में ही फैमा रहना है। इस अज्ञान के कारण. वह उम विशुद्ध प्रान्म-मणि को, जिसको कि देवों के देव इन्द्र तक भी नमन करते थकते नहीं. काच मी जानकर. त्याग बैठता है ।
SR No.010538
Book TitleSamyak Achar Samyak Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Maharaj, Amrutlal
PublisherBhagwandas Jain
Publication Year
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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